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________________ २७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सम्मामि० अजह० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सव्वणिरय०सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवा ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । मणुसअपज० सव्वपय० जह० पदेसुदी० जह• एयस०, उक्क० असंखेजा लोगा। अजह० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो । एवं जाव० । * तदो सण्णियासो। ६२१०. तदो गाणाजीवभंगविचयादिअणिओगद्दारविहासणादो अणंतरमिदाणिं सण्णियासो अहिकओ ददुव्वो ति अहियारसंभालणवक्कमेदं- * मिच्छत्तस्स उक्कस्सपद सुदीरगो अणंताणुषंधीणमुक्कस्सं वा अणुक्कस्सं वा उदीरेदि । २११. मिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसुदीरगो णाम संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्ठी सव्वविसुद्धो, सो अणंताणुबंधीणमण्णदरस्स णियमा उदीरगो। एवमुदीरेम.णो उक्कस्सं असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है, वे निरन्तर हैं। इतती विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सब नारकी, सब तिर्यश्च, मनुष्यत्रिक और सब देव जिन प्रकृतियों की उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के जघन्य प्रदेश उदीरकों का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपम के असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक मागंणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—सम्यग्मिध्यात्व गुण यह सान्तर मार्गणा है इसलिए ओघ और आदेश से गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें जहाँ सम्यग्मिथ्यात्व गुण की प्राप्ति सम्भव है, वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यात भागप्रमाण बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, इसलिए इनमें सब प्रकृतियों के अजघन्य प्रदेश उदीरकोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाने से वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। * तदनन्तर सन्निकर्ष अधिकृत है। $ २१०. तदनन्तर अर्थात् नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय आदि अनुयोगद्वारों का व्याख्यान करने के बाद इस समय सन्निकर्ष अधिकृत जानना चाहिए । इस प्रकार अधिकारकी सम्हाल करने वाला यह सूत्रवचन है। - * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करने वाला जीव अनन्तानुबन्धियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा या अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। $ २११. जो संयमके अभिमुख हुआ सर्व विशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्व के उत्कृष्ट प्रदेशोंका उदीरक कहलाता है वह अनन्तानुबन्धियोंमें से अन्यतरका
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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