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________________ २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे बारसक० - पंचणोक० सिया तं तु चउट्ठा० । एवं दुगुंछा । एवं जाव० । A २५९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । [ वेदगो ७ * अप्पाबहुं । $ २६०. सुगममेदमहियार संभालणवकं । * सव्वत्थोवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेसुदीरणा । $ २६१. कुदो ? संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइट्टिणा असंखे०लोगपडिभागेण उदीरिददव्ववग्गणादो ? * अनंताणुबंधीणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा अण्णदरा तुल्ला संखेज्जगुणा । $ २६२. कुदो ? मिच्छत्तुदीरणादो अर्णताणुबंधीणमण्णदरोदीरणाए. उदयपडिभागेण थोवृणचउग्गुणत्वलंभादो | तं जहा - अनंताणुबंधिकोहा दीणमण्णदरस्स उदये संते से कसाया तिणि वि त्थिउकसंक्रमेणुदयं पविसंति त्तिमिच्छत्तुदयादो अणंताणुबंधिउदयो थोवूणचउग्गुणो होड़, पयडिविसेसवसेण तत्थ थोवूणभावदंसणादो । एवमुदयो होदिति कट्ट उदीरणा वि तप्पडिभागेणेव होदि ति वेत्तव्वा । एत्थ चोदओ भइ - होउ णाम उदयी चउग्गुणो, थिउकसंकमवलेण तस्स तहाभावोववत्तीदो। ण उदीरणाए तहाभावसंभवो, एगुदयपयडिं मोत्तूण सेसाणमुदीरणाए अचंताभावदंसणादो त ? सच्चमेदं, एक्कादो चैत्र वेदिजमाणपय डिउदीरणा होदि त्ति इच्छिजमाण प्रदेश उदीरणा करता है। बारह कषाय और पाँच नोकषायोंका कदाचित् उदीरक है और कदाचित् अनुदीरक है । यदि उदीरक है तो कदाचित् जघन्य प्रदेश उदीरक है और कदाचित् अजघन्य प्रदेश उदीरक है । यदि अजघन्य प्रदेश उदीरक है तो जघन्यकी अपेक्षा चतुःस्थान पतित अजघन्य प्रदेश उदीरणा करता है । इसी प्रकार जुगुप्साको मुख्यकर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २५९. भाव की अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है । * अल्पबहुत्वका अधिकार है । $ २६०. अधिकारकी सम्हाल करनेवाला यह सूत्रवचन सुगम है । * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सबसे स्तोक है । $ २६१. क्योंकि संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके द्वारा असंख्यात लोक प्रतिभागरूपसे उदीरित द्रव्यका ग्रहण होता है । * उससे अनन्तानुबन्धियोंमें से अन्यतर प्रकृतिको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा परस्परमें तुल्य होकर संख्यातगुणी है । $ २६२. क्योंकि मिथ्यात्वकी उदीरणासे अनन्तानुबन्धियोंमेंसे अन्यतर कषायकी उदीरणा उदयप्रतिभागके अनुसार कुछ कम चौगुनी उपलब्ध होती है । यथा - अनन्तानुबन्धी क्रोधादिकमेंसे अन्यतरका उदय होने पर शेप तीनों ही कषाय स्तिवुक संक्रमणके द्वारा उदयमें प्रवेश
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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