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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ २४. जह० पयदं । दुविहो णिद्देसो—ओघेणआदेसेण य । ओघेण मोह० जह० अणुभागुदी० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसतिए । णवरि अजह० जह० उक्क० अंतोमु० । २५. आदेसेण सव्वणेरइय०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। देवेसु मोह० जह० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अजह० अणुक्कस्सभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । णवरि सगढिदी देसूणा । तिरिक्खेसु मोह० जह० अणुभागुदी. जह• एगस०, उक्क० उवड्ढपोग्गलपरियढें । अजह० जह० एगस०, उक्क० बे समया । एवं जाव० । विशेषार्थ—ओघसे मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका जो अन्तरकाल बतला आये हैं वह मनुष्यत्रिकमें बन जानेसे उस प्रकार घटित कर लेना चाहिए । सामान्यसे देवोंमें उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध बारहवें स्वर्ग तक ही सम्भव है, इसलिए उनमें मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा है। शेष कथन सुगम है। $ २४. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अजघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूते है। विशेषार्थ अजघन्य अनुभाग उदीरणा करनेवाला जो जीव उपशमश्रेणिपर चढ़कर और एक समयके लिए उसका अनुदीरक होकर दूसरे समयमें मरकर देव हो जाता है उसके मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय बन जानेसे वह उक्त काल प्रमाण कहा है। इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। कारण कि उपशमश्रेणिमें इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त देखा जाता है । मनुष्यत्रिकमें इसका जघन्य अन्तर एक समय नहीं बनता। इसलिए इनमें मोहनीयकी अजघन्य अनुभाग उदीरणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है। ६ २५. आदेशसे सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्टके समान भंग है। देवोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। अजघन्य अनुभाग उदीरकका भंग अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । तिर्यञ्चोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । अजघन्य अनुभाग उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल दो समय है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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