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________________ ६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सम्मामि० ओघं । एवं सत्तमाए । णवरि सम्म० अणुक्क० जह० अंतोमु० । एवं पढमादि जाव छट्टि त्ति । णवरि सगट्ठिदीओ | अरदि-सोगं हस्तभंगो । पढमाए सम्म० अणुक० जह० एस० । १७४. तिरिक्खेसु मिच्छ० - णवुंस०- सम्मामि० ओघं । सम्म० उक्क० जह० उक्क॰ एगस०' । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । सोलसक० - छण्णोक० पढमपुढविभंगो । इत्थवेद - पुरिसवेद० उक्क० अणुभागुदी० जह० एयस०, उक्क० वे समया । अणुक० जह० एस ०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्वकोडिधत्तेभहियाणि । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि मिच्छ० इत्थिवेदभंगो | णवुंस०अणुक० जह० एगस ०, उक्क ० पुव्वको डिपुधत्तं । पञ्जत्त० इत्थवेदो णत्थि । जोणिणीसु पुरिस० - पुंस० णत्थि । सम्म० अणुक० जह० अंतोमु० । ૨ अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कष्ट काल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तक जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । अरति और शोकका भंग हास्यके समान है । तथा पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है । विशेषार्थ- — मात्र सातवीं पृथिवीमें अरति और शोककी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसी नारीके अपने पर्याय तक निरन्तर होती रहती है, इसलिए वहाँ इनकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका उत्कृष्ट काल तेतीस सागरोपम कहा है । अन्य पृथिवियों में तो यह काल हास्य और रतिके समान ही प्राप्त होता है, इसलिए वहाँ उसे हास्य और रतिके समान जानकी सूचना की है। शेष कथन सुगम है । $ १७४. तिर्यों में मिध्यात्व, नपुंसकवेद और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय हैं और उत्कृष्ट काल कुछ कम तीन पल्योम है | सोलह कषाय और छह नोकषायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए । इतनी विशेषता है मिध्यात्वका भंग स्त्रीवेदके समान है । नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । तिर्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है और योनियों में सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ – भोगभूमिमें नपुंसकवेदी पञ्चेन्द्रिय तिर्यच नहीं होते यह उक्त कालप्ररूपणासे सूचित होता है । यही कारण है कि पचेन्द्रिय तिर्यन पर्याप्तकों में नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट १. आ०ता०प्रत्योः जह० एस० इति पाठः । २. ताप्रतौ सम्म० उक० अणुक्क० इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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