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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदोग७ एवमट्ठकसाय० । णवरि अजह० जह० एयस०, उक्क० पुव्ककोडी देसूणा । सम्मामि० जह० अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० उवड्डपोग्गलपरियढें । एवं सम्म० । णवरि जह० पत्थि अंतरं । चदुसंजल०-भय-दुगुंछ० जह० णत्थि अंतरं । अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । हस्स-रदि-अरदि-सोग० जह• णत्थि अंतरं । अजह० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि छम्मासं । इत्थिवे०- पुरिसवे०–णqस० जह. णत्थि अंतरं । अजह० जह० अंतोमु०, पुरिसवेद० एगसमओ; उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा, गवुस० सागरोवमसदपुधत्तं । $ २०७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० अणंताणु०४ जह० अजह० जह० पलिदो०. असंखे०भागो अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मामि० जह० अजह० है कि इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपाधपुदलपरिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। चार संज्वलन, भय और जुगुप्साके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। हास्य, रति, अरति और शोकके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल क्रमसे साधिक तेतीस सागरोपम और छह महीना है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल नहीं है। अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल दोका अन्तभुहूर्त और पुरुषवेदका एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल दोका अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है और नपुंसकवेदका सौ सागरोपमपथक्त्वप्रमाण है। विशेषार्थ-मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभाग उदीरणा संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिके होती है, अतः संयमके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ उक्त प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदोरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण कहा है। तथा मिथ्यात्वके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर यहाँ उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम कहा है । मात्र मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धीचतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी एक समयके अन्तरसे उदीरणा सम्भव है, इसलिए इनके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा है। इसी प्रकार आगे भी अपने-अपने स्वामित्व आदिको जानकर सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे अलगसे स्पष्टीकरण नहीं किया है। २०७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य और अजघन्य जनुभागके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। सम्यग्मिथ्यात्वके
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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