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________________ १९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अजह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । एवं मणुसतिये । णवरि अजह० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । अजह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० $ २४. पंचिंदियतिरिक्खअषज्ज० मोह० जह० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । असंखे ० भागो । एवं मणुस अपज्ञ्ज० । एगस०, उक्क० अट्ठारस सागरो ० सादिरेयाणि । असंखे ० भागो । एवं भवणादि जाव सव्वट्ठा $ २५. देवेसु मोह० जह० जह० अजह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० त्ति । णवरि सगट्ठिी देसूणा भाणियत्र्वा । एवं जाव० । $ २६. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो – जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण तत्थ इममट्ठपदं – जे उकस्सपदेसस्स उदीरगा त्ति अणुकस्सपदेसस्स अणुदीरगा । जे अणुक्कस्सपदेसस्स उदीरगा ते उक्कस्सपदेसस्स अणुदीरगा । एदेण अट्ठपदेण मोह० उक्कस्सपदेसस्स सिया सव्वे अणुदीरगा, एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । विशेषार्थ — यहाँ मनुष्यत्रिक में उपशमश्रेणि सम्भव है, इसलिए इनमें मोहनीयकी अजघन्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । शेष कथन सुगम है । $ २४. पचेन्द्रिय तिर्यन अपर्याप्त जीवों में मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । $ २५. देवों में मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम है। अजघन्य प्रदेश उदीरणाका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - - देवों में सबसे जघन्य प्रदेश उदीरणाके योग्य उत्कृष्ट या तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम सहस्रार कल्प तकके देवोंमें ही सम्भव हैं, इसलिए यहाँ मोहनीयकी जघन्य प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागरोपम कहा है। शेष कथन सुगम है। $ २६. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे वहाँ यह अर्थपद है— जो उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक हैं वे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके अनुदीरक हैं । जो अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरक हैं वे उत्कृष्ट प्रदेशोंके अनुदीरक हैं। इस अर्थपदके अनुसार मोहनीय के उत्कृष्ट प्रदेशोंके
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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