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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे ३२४ मिदि जाणविदमेदेण सुत्तेण । [ वेदगो ७ एवं जहण्णप्पा बहुए समचे पयडिविसयप्पा बहुअं समचं । ३५४. संपहि विदिप्पा बहुअपरूवणमुत्तरमुत्तपबंधमाह - * द्विदीहिं उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ मिच्छुत्तस्स बज्भंति ताओ थोवाओ । ३५५. एत्थ ठिदिविसयमप्पाबहुअं भणामि त्ति जाणावणङ्कं 'द्विदीहिं' ति . णिसो । तत्थ वि जहण्णुकस्स भेदेण दुविहप्पाचहुअसंभवे उक्कस्सप्पाबहुअं ताव उच्चदि त्ति पदुप्पायणट्ठमुक्कस्सेणे ति णिसो कओ । तं च पयडिपरिवाडिमस्सियूण परूवेमि त्ति जाणावणङ्कं 'मिच्छत्तस्से' ति णिद्देसो । तदो मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ उकस्सेण बज्झति ताओ थोवाओ ति सुत्तत्थसंबंधो । किंपमाणाओ मिच्छत्तस्स उकस्सेण झमाणद्विदीओ ? आबाहूणसत्तरिसागरोवमकोडा कोडिमेत्ताओ । कुदो १ णिसेयद्विदीर्ण चैव विवक्खियत्तादो । * उदीरिज 'ति संकामिज्जति च विसेसाहियाओ । ९ ३५६. मिच्छत्तस्स उक्कस्सेण जाओ द्विदीओ त्ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे । तदो मिच्छत्तस्स संकामिजमाणोदीरिजमार्णाट्ठदीओ समाणाओ होदूण पुव्विल्लबज्झमाण जघन्य उदीरणाके एक प्रकृतिप्रमाण होनेसे अल्पबहुत्व नहीं है इस बातका ज्ञान इस सूत्र द्वारा कराया गया है । इस प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व के समाप्त होने पर प्रकृतिविषयक अल्पबहुत्व समाप्त हुआ । $ ३५४. अब स्थिति अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं* स्थितियोंकी अपेक्षा उत्कृष्टरूपसे मिथ्यात्वकी जो स्थितियाँ बँधती हैं वे स्तोक हैं । $ ३५५. यहाँ स्थितिविषयक अल्पबहुत्वको कहते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'द्विदीहिं' पदका निर्देश किया है । उसमें भी जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो प्रकारके अल्पबहुत्वके सम्भव होनेपर सर्वप्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करते हैं इस बातका कथन करनेके लिए ‘उक्कस्सेण' पदका निर्देश किया है । और उसे प्रकृतियोंकी परिपाटीका आश्रय कर कहते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिए 'मिच्छत्तस्स' पदका निर्देश किया है । इसलिए मिथ्यात्वकी जो स्थितियाँ उत्कृष्टरूपसे बँधती हैं वे स्तोक हैं इस प्रकार सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । मिध्यात्वकी उत्कृष्टरूपसे बध्यमान स्थितियोंका क्या प्रमाण है ? वे आबाधासे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोपमप्रमाण हैं, क्योंकि यहाँ पर निषेकस्थितियाँ ही विवक्षित हैं। * उनसे उदीर्यमाण और संक्रमित होनेवाली स्थितियाँ विशेष अधिक हैं । $ ३५६. ‘मिच्छत्तस्स जाओ द्विदीओ' इसकी पूर्व सूत्रसे अनुवृत्ति होती है, इसलिए
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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