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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए भुजगारे अंतरं १३९ छम्मासं । अवत्त० - अवद्वि० हस्सभंगो । सम्म० - सम्मामि० भुज० - अप्प० - अवट्ठि० अवत्त० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० उपोग्गल परियङ्कं । पदका भंग हास्यके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य पदका जघन्य अन्तरकाल क्रमसे तीनका एक समय और अन्तिमका अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । विशेषार्थ — यद्यपि मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम दो छयासठ सागरोपम कहा है, परन्तु जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके मिथ्यात्व छूटनेके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त कालमें नियमसे मिध्यात्वकी अल्पतर उदीरणा होती है और जो जीव सम्यक्त्वसे मिथ्यात्वमें आता है उसके मिध्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम अन्तर्मुहूर्त में नियमसे मिथ्यात्वकी भुजगार उदीरणा होती है। इस तथ्यको ध्यानमें रखकर यहाँ मिथ्यात्वके भुजगार और अल्पतर पद के उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम कहा है । मिथ्यात्वका अवस्थित पद यह जीव अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक नहीं करता, इसलिए यहाँ मिथ्यात्वके इस पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा है । मिथ्यात्वमें दो बार आकर दो बार अवक्तव्य उदीरणा करनेके मध्य जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है इसलिए तो यहाँ इसके अवक्तव्य पदके उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है । तथा जिस जीवने संसारका अर्ध पुद्गल परिवर्तन काल शेष रहनेपर सम्यक्त्व प्राप्त किया, पुनः अन्तर्मुहूर्त में मिथ्यादृष्टि होकर उसने अवक्तव्य पद किया । पुनः अन्तमें जब संसारमें रहनेका अपने योग्य स्वल्पकाल शेष रह जाय तब पुनः सम्यक्त्वको प्राप्तकर अन्तहूर्त बाद पुनः मिध्यादृष्टि होकर उसने अवक्तव्य पद किया । इस प्रकार मिथ्यात्वके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उपार्ध पुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त होनेसे वह तत्प्रमाण कहा है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्य सब भंग तो मिथ्यात्वके समान है । मात्र इसके अवक्तव्य पदके उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालमें फरक है । बात है कि मिध्यात्वका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल है उसे अन्तर्मुहूर्त अधिक करनेपर अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त होता है, क्योंकि तीसरे और चौथे गुणस्थानमें मिध्यात्वका उदय - उदीरणा नहीं होती। यही कारण है कि यहाँपर इसके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक दो छयासठ सागरोपम कहा है । यहाँपर भी प्रारम्भ में और अन्तमें दो बार अवक्तव्य पद प्राप्तकर यह अन्तरकाल लाना चाहिए । सयमासंयम और संयमका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि प्रमाण होनेसे यहाँ मध्यकी आठ कषायोंके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है। उपशम श्रेणिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है, इसे ध्यानमें रखकर यहाँ चार संज्वलन, भय और जुगुप्सा भुजगार अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा है। स्त्रीवेदी और पुरुषवेदीके उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यान में रखकर यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेद के तीन पदोंके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल प्रमाण कहा है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनोंके कालके बराबर है। नपुंसकवेदीका उत्कृष्ट अन्तरकाल सौ सागरोपम पृथक्त्व प्रमाण है, इसलिए यहाँ नपुंसकवेदके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्तकाल प्रमाण कहा है। इसका अवक्तव्य पद पश्चेन्द्रिय जीवके ही सम्भव है और ऐसे जीवका उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है, इसलिए इसके अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल स्त्रीवेदके समान कहा है । हास्य और रतिकी उदीरणा तथा उदय सातवें
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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