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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ ___३८३. आदेसेण णेरइय० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु०४-हस्सरदि० तिण्णिपदा० जह० एयस०, अवत्त० जह• अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवमरदि-सोग० णवरि भुज-अप्प० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं बारसक०भय-दुगुंछ । णवरि अवत्त० जह० उक्क. अंतोमु० । एवं सत्तमाए । एवं पढमादि जाव छट्ठि त्ति । णवरि सगद्विदी देसूणा । हस्स-रदि-अरदि-सोग० बारसकसायभंगो। ३८४. तिरिक्खेसु मिच्छ० ओघं । णवरि भुज०-अप्प० जह० एगस, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । एवमणंताणु०४ । णवरि अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अपञ्चक्खाणचउक्क० सम्म०-सम्मामि०-इत्थिवेदनरकमें जीवन भर तथा वहाँ जानेके पूर्व और निकलनेके बाद अन्तर्मुहूर्तकाल तक न हो यह सम्भव है, इसलिए इनके भुजगार, अल्पतर और अवक्तव्य पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागरोपम कहा है । शतार-सहस्रार कल्पमें अधिकसे अधिक छह माह तक अरति और शोकका उदय-उदीरणा नहीं होती है, इसलिए इनके भुजगार और अल्पतर पदके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना कहा है। शेष कथन सुगम है। यहाँ सर्वत्र प्रत्येक प्रकृतिके विवक्षित पदके उदीरकका अन्तरकाल लाते समय जहाँ जिस प्रकार बने उस प्रकार उस उस पदको अन्तरकालके प्रारम्भ होनेके पूर्व एक बार और अन्तरकालके समाप्त होनेपर एक बार कराकर अन्तरकाल लाना चाहिए । सर्वत्र सोलह कषायोंके अवक्तव्य पदके उदीरकका जो जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है सो विचार कर जान लेना चाहिए। तात्पर्य यह है कि चारों क्रोधोंका मरणसे तथा शेष कषायोंका व्याघात और मरणसे यद्यपि एक समय अन्तरकाल बन जाता है, पर इनके अवक्तव्य पदके दो बार प्राप्त होने में कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगनेसे इनके अवक्तव्य पदकर जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। शेष कथन सुगम है। आगे गति मार्गणाके भेद प्रभेदोंमें भी इसी न्यायसे अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। $३८३. आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतष्क, हास्य और रतिके तीन पदों के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है, अवक्तव्य पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार अरति और शोक की अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेपता है कि इनके भुजगार और अल्पतर पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके अवक्तव्य पद के उदीरक का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवी में जानना चाहिए। पहली पृथिवी से लेकर छठी पृथिवी तक के नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इनमें हास्य, रति, अरति, शोक का भंग वारह कषायों के समान है। . ६३८४. तिर्यञ्चों में मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसके भुजगार और अल्पतर पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है। इसी प्रकार अनन्तनुन्धीचतुष्क की अपेक्षा जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य पद के उदीरक का जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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