SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ $१६७. सुगमं । * जहएणुक्कस्सेण अंतोमुहत्त। $ १६८. कुदो ? जहण्णुक्कस्ससम्मामिच्छत्तगुणकालस्स तप्पमाणत्तादो । * सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तभंगो। $ १६९. जहा मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुकस्साणुभागुदीरगजहण्णुक्कस्सकालपरूवणा कदा तहा सोलसकसाय-णवणोकसायाणं पि कायव्या, विसेसाभावादो। णवरि एदेसि कम्माणमणुक्कस्साणुभागुदीरगउक्कस्सकालगओ विसेसो अत्थि त्ति तप्पदुप्पायणट्ठमाह-- * णवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगउक्कस्सकालो पयडिकालो कादवो। $ १७०. एदेसि कम्माणं पयडिउदीरणाए जो उकस्सकालो सो चेव एत्थाणुकस्साणुभागुदीरगस्स णिरवसेसेण कायव्यो त्ति भणिदं होइ। $ १७१. संपहि एदेण सुत्तेण सूचिदत्थस्स विवरणट्ठमादेसपरूवणटुं च उचारणाणुगममेत्थ कस्सामो । तं जहा____१७२. कालो दुविहो—जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णस० उक्क० अणुभागुदी० जह० एगस०, उक्क० वे $ १६७. यह सूत्र सुगम है।। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । $ १६८. क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानका काल तत्प्रमाण होता है। * शेष कर्मोंका भंग मिथ्यात्वके समान है । $ १६९. जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन किया है उसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका भी करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि इन कर्मों के अनुकृष्ट अनुभागके उदीरककी उत्कृष्ट कालगत विशेषता है, इसलिए उसके कथन करनेके लिए कहते हैं * इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट काल प्रकृति उदीरणाके उत्कृष्ट कालके समान करना चाहिए। $ १७०. इन प्रकृतियोंकी प्रकृति उदीरणाका जो उत्कृष्ट काल है वही यहाँपर अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरकका निरवशेषरूपसे करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। 5 १७१. अब इस सूत्रक द्वारा सूचित हुए अर्थका विवरण करनेके लिए और आदेशका कथन करनेके लिए यहाँ पर उच्चारणाका अनुगम करते हैं । यथा १७२. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल दो समय है। अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy