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________________ गा० ६२] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णा पवणोकसायाणमणुभागउदीरणा एइंदिए वि देसघादी होइ, तप्पाओग्गविसोहिपरिणामसंभवस्स तत्थ वि णिरंकुसत्तादो त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । एत्थ देसघादी चेव उदीरणा होइ तिणावहारेयव्वं, किं तु एदेसु जीवसमासेसु सव्वघादिउदीरणासम्भावमविप्पडिवत्तिसिद्ध कादण देसघादिउदीरणाए तत्थासंभवणिरायरणमुहेण संभवविहाणभेदेण सुत्तेण कीरदे। तदो सण्णिमिच्छाइटिप्पहुडि एइंदियपजवसाणसव्वजीवसमासेसु एदेसि कम्माणमणुभागुदीरणा देसघादी वा सव्वघादी वा होदण लब्भदि ति णिच्छयो कायव्यो। एवं धादिसण्णा द्वाणसण्णा च ओघं विसेसिदाओ दो वि एक्कदो परूविदाओ। संपहि दोण्हं पि सण्णाणं पुध पुध अणुगममोघादेसेहिं वत्तहस्सामो । तं जहा. ९३. सण्णा दुविहा–धादिसण्णा द्वाणसण्णा चेदि । धादिसण्णा दुविहाजह• उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ वारसक०-सम्मामि० उक्क० अणुक० अणुभागुदी० सव्वघादी । सम्म० उक्क ० अणुक देसघादी। चदुसंजलण-णवणोक० उक्क० अणुभागुदी० सव्वघादी। अणुक्क० सव्वघादी वा देसघादी वा । सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । एवं जहण्णयं पि णेदव्वं । णवरि जह० अजह० भाणिदव्वं । चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी अनुभाग उदीरणा एकेन्द्रियके भी देशघाति होती है, क्योंकि तत्प्रायोग्य विशुद्धिरूप परिणामोंकी सम्भावना वहाँ भी विना किसी बाधाके पाई जाती है यह इस सूत्रका तात्पर्य है। यहाँ इन सबके मात्र देशघाति ही उदीरणा होती है ऐसा अवधारण नहीं करना चाहिए, किन्तु इन जीवसमासोंमें सर्वघाति उदीरणाका सद्भाव निर्विवाद सिद्ध है ऐसा जानकर देशघाति उदीरणा वहाँ सम्भव नहीं है इस बातके निराकरण द्वारा उसकी सम्भावनाका विधान अलगसे इस सूत्र द्वारा किया गया है, इसलिए संज्ञी मिथ्यादष्टिसे लेकर एकेन्द्रिय तकके सब जीवसमासोंमें इन कर्मोकी अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति होकर प्राप्त होती है ऐसा निश्चय करना चाहिए। इस प्रकार सामान्य और विशेषताको लिये हुए घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा इन दोनोंका एकसाथ कथन किया। अब दोनों ही संज्ञाओंका ओघ और आदेशसे अलग-अलग अनुगम करते हैं । यथा $ ९३. संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा। घातिसंज्ञा दो प्रकारको है. जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा देशघाति है । चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति है । अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा सर्वघाति भी है और देशघाति भी है । सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा होती है उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार जघन्यको भी जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि जघन्य और अजघन्य ऐसा कथन करना चाहिए। १. आ० प्रतो तत्थ णिरंकुसत्तादो इति पाठः।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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