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________________ [12] नेद अनन्तानुबन्धी ४ संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- | संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय वर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि । वर्ती सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टि । अप्रत्याख्यान ४ संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- | संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध असंयतसम्यग्दृष्टि । वर्ती सर्वविशुद्ध या ईषत् मध्यम परि णामवाला असंयतसम्यग्दृष्टि।। प्रत्याख्यान ४ संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समय- संयमके अभिमुख हुआ अन्तिम समयवर्ती सर्वविशुद्ध संयतासंयत । वर्ती सर्वविशुद्ध या ईषत् मध्यम परि णामवाला संयतासंयत । संज्वलन ४ और तीन | अपने-अपने वेदककालमें एक समय | अपने-अपने वेदककालमें एक समय अधिक एक अवलिकाल शेष रहने पर | अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर क्षपकके । क्षपकके। छह नोकषाय क्षपक अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें। |क्षपक अपर्वकरणके अन्तिम समयमें । ओधसे यह मोहनीयकी सब प्रकृतियोंको जघन्य अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके अधिकारीका ज्ञान करानेवाला कोष्ठक है। इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि जिस अवस्थासे युक्त जो-जो जीव मोहनीयकी मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा करता है उसी अवस्थासे युक्त वहो वही जीव उनकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करता है। इस तथ्यको ठीक तरहसे समझनेके लिए उपशमना प्रकरण और क्षपणा प्रकरण पर सम्यकपसे दृष्टिपात करना चाहिए। वहाँ बतलाया है कि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही स्थितिकाण्डकघात, अप्रशस्त कर्मोका अनुभागकाण्डकघात, गुणश्रेणि और गुणसंक्रम ये चार विशेषताएं प्रारम्भ हो जाती है। ये विशेषताएं आगे भी चालू रहती है । इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक समयमें वहाँ अप्रशस्त कर्मोकी अनुभाग उदीरणा उत्तरोत्तर कम होती जाती है और प्रदेश उदीरणा बढ़ती जाती है। यही कारण है कि मिथ्यात्व आदि कर्मोकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका जो जीव स्वामी होता है वही जीव उनको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका भी स्वामी होता है। अर्थात् जो जीव मिथ्यात्व या अन्य कर्मको जघन्य अनुभाग उदीरणा करता है वही जीव उस कर्मको उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा भी करता है । यह नियम मोहनीयके सब अवान्तर भेदों पर लागू होता है। __ यह तो अनुभाग उदीरणा और प्रदेश उदीरणाके सम्बन्धका विचार है। किन्तु मोहनीयके सब अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति उदीरणाका विचार भिन्न प्रकारका है। बात यह है कि जिनकी बन्धसे उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है उनकी तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होनेके एक आवलि बाद उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा होती है और जो संक्रमसे उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ हैं उनकी संक्रमसे अपने-अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होनेके एक आवलि बाद उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा सम्भव है । मात्र सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणा ऐसे वेदक सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके होती है जो मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट बन्ध कर उसका घात किये बिना अन्तर्मुहर्तमें वेदक सम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके दूसरे समयमें सम्यकत्वकी और उसीके अन्तर्मुहर्तमें सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो जाने पर सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिउदीरणा होती है। यह सब प्रकृतियोंको उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका विचार है। जघन्य स्थिति उदीरणाके विषयमें ऐसा समझना चाहिए कि अनन्तानुबन्धी आदि बारह कषाय और छह नोकषाय इनकी जघन्य स्थिति उदीरणा एकेन्द्रिय जीवोंमें ही सम्भव है, अन्यत्र नहीं। कारण कि इनके उदयके साथ इनकी जघन्य स्थिति वहीं पर सम्भव है, अन्यत्र नहीं । मिथ्यात्व, सम्यकत्व, तीन वेद और चार संज्वलन इन कर्मोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा एक स्थितिवाली यथासम्भव उपशमना या क्षपणाके समय बन जाती है। मात्र सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य स्थिति उदीरणा ऐसे सम्थग्मिथ्यादष्टिके बनती है जो मिथ्यादष्टि वेदक-प्रायोग्य जघन्य स्थिति सत्कर्मके साथ सम्यग्मिथ्यादृष्टि होकर उसके अन्तिम समयमें अवस्थित है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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