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इस तुलनासे ज्ञात होता है कि उक्त प्रकारसे जो जीव मिथ्यात्व, तीन वेद और चार संज्वलनोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी है वह तो इनकी जघन्य स्थिति उदीरणाका स्वामी हो ही सकता है, साथ ही अन्य प्रकारसे भी इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरणा बन जाती है। पात्र सम्यकत्वकी जघन्य स्थिति उदीरणाका वही जीव स्वामी है जो इसकी जघन्य अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका स्वामी है।
यह तुलनाके साथ सामान्यसे स्वामित्वका विचार है। इसी प्रकार अन्य सब प्ररूपणाका विचार कर लेना चाहिए। उसका विशेष विचार उस उस अनुयोगद्वारमें किया ही है, इसलिए यहां अलगसे ऊहापोह नहीं किया गया है।
७. चूलिका कषायप्राभृतमें इस चूलिका अधिकारके पूर्व तक विभक्ति, संक्रम और वेदक इन महाधिकारोंका विवेचन हुआ है । इस चूलिका अधिकारका इन तीनोंसे सम्वन्ध है । इसमें मोहनीयको २८ प्रकृतियोंके उदय, उदीरणा, बन्ध, संक्रम और सत्त्व इन पांच पदोंका अवलम्बन लेकर अल्पबहुत्वका सविस्तर विचार किया गया है। यहाँ अन्य सब कथन तो सुगम है। मात्र उक्त पांच पदोंके आश्रयसे जघन्य स्थिति अल्पबहुत्वका विचार करते हुए जो यत्स्थितिका निरूपण हुआ है वह अवश्य ही विचारणीय है। स्थिति दो प्रकारको हैएक निषेकस्थिति और दूसरी कालस्थिति । कालकी अपेक्षा जहाँ जिस कर्मको जो जघन्य स्थिति प्राप्त होती है उसकी यत्स्थिति संज्ञा है और वहां जितने निषेक हों तत्प्रमाण स्थिति ही निषेकस्थिति जाननी चाहिए । इस विषयका विशेष खुलासा हमने यथास्थान किया ही है ।