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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १२१. कुदो १ मिच्छत्ताणंताणुबंधीणमुवसमसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइट्ठिस्स समयाहियावलियचरिमसमए दुचरिमसमए च जहाकमेणुकस्ससामित्तपडिलंभादो । सम्मत्तस्स कदकरणिञ्जसमयाहियाबलियाए सम्मामिच्छत्तस्स वि सम्मत्ताहिमुहसम्मामिच्छाइट्ठिचरिमविसोहीए विसयंतरपरिहारेणुक्कस्ससामित्तदंसणादो । संपहि एदेसिमणुकस्सपदेसुदीरग २२६ जहण्णुक्कस्सकालावहारणट्ठमाह * अणुक्कस्सपदेसुदीरगो पथडिउदीरणाभंगो । $ १२२. एदेसि कम्माणमणुकस्सप देसुदीरगस्स जहण्णुकस्सकाला पयडिउदीरणाभंगेणाणुगंतव्वा, तत्थतणं जहण्णुकस्सकालेहिंतो मेदाभावादो । संपहि वृत्तसेसाणं कम्माणमुक्कस्साणुक्कस्सपदेसुदीरगजहण्णुकस्सकालगवेसण माह * सेसाणं कम्माणमित्थि-पुरिसवेववज्जाणमुकस्सिया पवेसुदीरणा केषचिरं कालादो होदि ? $ १२३. एस्थित्थि - पुरिसवेदाणं परिवाणं, णिरयगईए तेसिमुदीरंणाभावादो त्ति घेत्तव्वं । अवसेसं सुगमं । 1 $ १२१. क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिध्यादृष्टिके एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर उदीरणा विषयक अन्तिम समयमें और द्विचरम समयमें क्रमसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। तथा सम्यक्त्वका कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर और सम्यग्मिथ्यात्वका भी सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी अन्तिम विशुद्धिके प्राप्त होने पर अन्य स्थानको छोड़कर उक्त स्थानों पर उत्कृष्ट स्वामित्व देखा जाता है। अब इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणा करनेवालेके जघन्य और उत्कृष्ट कालका निश्चय करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * अनुत्कृष्ट प्रदेश - उदीरकका भंग प्रकृति उदीरणाके समान है । $ १२२. इन कर्मोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल प्रकृति उदीरणाके कालके समान जानना चाहिए, क्योंकि वहाँके जघन्य और उत्कृष्ट कालसे प्रकृत कालमें कोई भेद नहीं पाया जाता। अब उक्त कर्मोंसे बाकी बचे हुए कर्मोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवालेके जघन्य और उत्कृष्ट कालका विचार करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं * स्त्रीवेद और पुरुषवेदको छोड़कर शेष कर्मोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका कितना काल है ? $ १२३. नरकगतिमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उदीरणा नहीं होती, इसलिए यहाँ स्त्रीवेद और पुरुषवेदका निषेध किया है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है । १. ता॰प्रतौ चरिममसए जहाकमेण इति पाठः । २. ता०प्रतौ एत्थतण- इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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