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________________ १०० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ णवरि सम्मामि ० जह० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । $ २४६. आदेसेण णेरइय० सम्म० - सम्मामि० ओघं । सेसपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अजह० सव्वद्धा । एवं पढमाए तिरिक्खपंचिदियतिरिक्खदुग- देवा सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा त्ति । णवरि अप्पप्पणो पडीओ णादव्वाओ । विदियादि सत्तमा त्ति जोणिणी ० - भवण ० - वाणवें ० - जोदिसि ० सम्मामि० ओघं । सेसपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अजह० सव्वद्धा । पंचिदियतिरिक्खअपज० सव्वपय० जह० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं० भागो । अज० सव्वद्धा । आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ – ओघसे सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका काल एक समय है यह स्पष्ट ही है । यदि नाना जीव सन्तानके त्रुटित हुए बिना इनकी जघन्य अनुभाग उदीरणा करें तो सब कालका योग सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़ कर संख्यात समय ही होगा, इसलिए यहाँ उनके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है । मात्र सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा यह काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रगाण बन जाता है, इसलिए इसके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है । $ २४६. आदेशसे नारकियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकों का काल सर्वदा है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्मकल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी प्रकृतियाँ जाननी चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, योनिनीतिर्यञ्च, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलि असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है | पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुभागके उदीरकों काल सर्वदा है। विशेषार्थ — प्रथम पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चद्विक, सामान्य देव और सौधर्म कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान बन जाता है । परन्तु पूर्वोक्त शेष मार्गणाओं में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वकी अपेक्षा कालप्ररूपणा अन्य प्रकृतियोंके समान बननेसे उस प्रकारसे कही है। शेष कथन सुगम है ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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