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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए एयजीवेण कालो १६५ $ ४५१. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक ० - सम्म० - सम्मामि० ओघं । णवरि णव स० अवत्त० णत्थि । तिरिक्खेसु ओघं । णवरि तिण्णिवे० अवत्त० कस्स ? अण्णद० मिच्छाइट्ठिस्स । एवं पंचि०तिरिक्खतिये | वरि वेदा जाणिव्वा । जोणिणीसु इत्थवे० अवत्त० णत्थि । पंचिं ० तिरि० अपज० - मणुसअपञ्ज० अणुदिसादि सव्वाति सव्वपयडी० सव्वपदा० कस्स ? अण्णद० । $ ४५२. मणुसतिये ओघं । णवरि वेदा जाणियव्वा । मणुसिणीसु इत्थवे० अवत्त० कस्स ? अण्णद० सम्माइडि० । देवेसु ओघं । णवरि णवुस० णत्थि । इत्थवे ० - पुरिसवे० अवत्त० णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा ति । एवं सणकुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थवेदो णत्थि । एवं जाव । $ ४५३. कालानुगमेण दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपय० पंचवड्डि- पंचहाणी ० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अनंतगुणवड्डिहाणी ० जह० यस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, उक्क० सत्तसमया । अवत्त० जह० उक्क० एस० । सव्वणिरय - सव्यतिरिक्ख - सव्वमणुस - सव्वदेवात्ति $ ४५१. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सात नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेदका अवक्तव्य पद नहीं है । तिर्यों में ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि तीन वेदोंका अवक्तव्य पद किसके होता है ? अन्यतर मिध्यादृष्टिके होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए | योनिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । पचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में तथा नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद किसके होते हैं ? अन्यतरके होते हैं । $ ४५२. मनुष्यत्रिक में ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए । मनुष्यिनियोंमें स्त्रीवेदका अवक्तव्य पद किसके होता है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि होता है । देवोंमें ओघके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक - वेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदका अवक्तव्य पद नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमारसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। 'इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ४५३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे सब प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य का एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित पदका 'जघन्य काल एक समय है। और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है । अवक्तव्य पदका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सब नारकी, सब तिर्यन, सब मनुष्य और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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