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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ अणुभागो ण यदि त्ति कत्तो णव्वदे ? एदम्हादो वेव सुत्तादो । संपहि सम्मामिच्छचुक्कस्साणुभागोदीरणाए सामित्तविहाणमाह ५० * संम्मामिच्छुत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ ११२. सुगमं । * मिच्छुत्ताहिमुहचरिमसमयसम्मामिच्छाइट्ठिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स । $ ११३. एत्थ मिच्छत्ता हिमुहविसेसणं सत्थाणसम्मामिच्छाइट्ठिवुदासङ्कं सम्मत्ताहिमुहसमामिच्छाइट्ठिपडिसेहट्टं वा, तत्थुक्कस्ससंकिलेसाभावेण पयदसामित्तविहाणोवायाभावादो । चरिमसमयविसेसणं दुचरिमादिहेट्ठिमसमयावट्ठिदसम्मामिच्छाइट्ठिपडिसेहट्टं । सम्मामिच्छाइट्टिणिसो सेसगुणट्ठाणेसु पयदसामित्तस्स अचंताभावपदुप्पायनफलो । सव्वसंकिलिट्ठस्से त्ति विसेसणं मंदसंकिलेसेण मिच्छत्तं पडिवजमाणचरिमसमय1 सम्मामिच्छाट्ठिस्स उक्कस्साणुभागुदीरणा ण होदि त्ति जाणावणङ्कं । तदो एवंविहस्स पयदुक्कस्ससामित्तं होइ त्ति सिद्धं । * इत्थवेद- पुरिसवेदाणमुक्कस्साणुभागुदीरणा कस्स ? $ ११४. सुगमं । अब सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वका विधान करनेके लिए कहते हैं * सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११२. यह सूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वके अभिमुख हुए सर्व संक्लेश परिणामवाले सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । $ ११३. यहाँ पर स्वस्थान सम्यग्मिथ्यादृष्टिका निराकरण करनेके लिए 'मिथ्यात्व के अभिमुख' यह विशेषण दिया है अथवा सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिका प्रतिषेध करने के लिए 'मिथ्यात्वके अभिमुख' यह विशेषण दिया है, क्योंकि वहाँपर उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव होनेसे प्रकृत स्वामित्वके विधानके उपायका अभाव है । द्विचरमआदि अधस्तन समयोंमें स्थित सम्यग्मिथ्यादृष्टिका प्रतिषेध करनेके लिए 'अन्तिम समय' यह विशेषण दिया है । शेष गुणस्थानों में प्रकृत स्वामित्वके अत्यन्ताभावको दिखलानेके लिए 'सम्यग्मिध्यादृष्टि' । पदका निर्देश किया है । मन्द संक्लेशसे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा नहीं होती इसका ज्ञान करानेके लिए 'सव्वकिलिस' यह विशेषण दिया है। इसलिए इस प्रकारके जीवके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है यह सिद्ध हुआ । * स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा किसके होती है ? $ ११४. यह सूत्र सुगम है ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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