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________________ २१४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ असंजदसम्माइद्विस्स असंखेअलोगमेत्ताणि विसोहिट्ठाणाणि जहण्णट्ठाणप्पहुडि छवडिसरूवेणावद्विदाणि अत्थि, तेसिमायामे आवलियाए असंखेजभागमेत्तमागहारेण खंडिदे तत्थ चरिमखंडसव्वपरिणामेहिं असंखेजलोगभेयभिण्णेहिं उक्कस्सिया पदेसुदीरणा ण विरुज्झदि त्ति । तखंडचरिमपरिणामो सव्वविसुद्धपरिणामो णाम । तत्थेव जहण्णपरिः णामो ईसिपरिणामो णाम । सेसासेसपरिणामा मज्झिमपरिणामा त्ति भणंते । कथमेदेहि भिण्णपरिणामेहिं उक्कस्सपदेसुदीरणलक्खणकजस्साभिण्णसरुवस्स सिद्धी ण विरुज्झदि त्ति णासंकणिजं, कत्थ वि भिण्णकारणेहितो वि अभिण्णकञ्जुप्पत्तीए बाहाणुवलंभादो । तदो सव्वविसुद्धस्स ईसिमझिमपरिणामस्स वा संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइद्विस्स पयदुक्कस्ससामित्तमिदि ण किंचि विरुद्धं ।। * पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेसुदीरणा कस्स ? 5 ८२. सुगमं । * संजमाहिमुहचरिमसमयसंजदासंजदस्स सव्वविसुद्धस्स ईसिमझिम परिणामस्स वा। ६.८३. एदस्स सुत्तस्स अत्थो अणंतरादीदसामित्तसुत्तस्सेव वक्खाणेयव्वो, विसेसाभावादो। णवरि तत्थ संजमाहिमुहचरिमसमयअसंजदसम्माइट्ठिस्स उक्कस्ससामित्तं असंयतसम्यग्दृष्टिके जघन्य स्थानसे लेकर छह वृद्धिरूपसे अवस्थित असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थान हैं। उनके आयाममें आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारका भाग देने पर वहाँ जो अन्तिम खण्डके परिणाम प्राप्त हों, असंख्यात लोकप्रमाण भेदरूप उन सब अन्तिम खण्डके परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विरोधको प्राप्त नहीं होती है । उस खण्डका जो अन्तिम परिणाम है वह सर्वविशुद्ध परिणाम संज्ञावाला है और उसी खण्डमें जघन्य परिणाम है, उसकी ईषत् परिणाम संज्ञा है। उनके सिवाय शेष अशेष परिणाम मध्यम परिणाम कहलाते हैं। शंका-इन भिन्न परिणामोंसे अभिन्नस्वरूप उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा लक्षण कार्यकी सिद्धि कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होती ? समाधान--ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि कहीं भी भिन्न कारणोंसे भी अभिन्न कार्योंकी उत्पत्ति होनेमें बाधा नहीं पाई जाती। इसलिए सर्वविशुद्ध अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि जीवके प्रकृत उत्कृष्ट स्वामित्व होता है, इसमें कुछ भी विरुद्ध नहीं है। * प्रत्याख्यानावरण कषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा किसके होती है ? ६८२. यह सूत्र सुगम है। * सर्व विशुद्ध अथवा ईषत् मध्यम परिणामवाले संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संयतासंयतके होती है। $ ८३. अनन्तर अतीत हुए स्वामित्व सूत्रके समान इस सूत्रके अर्थका व्याख्यान करना चाहिए, क्योंकि उसके व्याख्यानसे इसके व्याख्यानमें कोई विशेषता नहीं है । इतनी विशेषता
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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