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________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिहेसो ३२९ 5 ३७१. संपहि जहण्णद्विदिअप्पाबहुअपरूवणट्ठमाह* जहणणेण मिच्छत्तस्स एगा हिदी उदीरिजदि उदयो संतकम्मं च । $ ३७२. तं जहा—उदीरणा ताव पढमसम्मत्ताहिमुहमिच्छाइद्विस्स समयाहियावलियमेत्तमिच्छत्तपढमद्विदीए सेसाए एगहिदिमेत्ता होदूण जहणिया होइ । उदयो वि तस्सेवावलियपविट्ठपढमहिदियस्स जहण्णओ होइ । संतकम्म पुण दंसणमोहक्खवगस्स एगट्ठिदी दुसमयकालमत्तमिच्छत्तद्विदिसंतकम्मं घेत्तूण जहण्णयं होइ । तदो मिच्छत्तस्स जहणिया द्विदिउदीरणा उदयो संतकम्मं च एगहिदिमेत्तणि होदूण थोवाणि जादाणि। * जहिदिउदयो च तत्तियो चेव । $ ३७३. किं कारणं ? मिच्छत्तपढमद्विदीए आवलियपविट्ठाए आवलियमेत्तकालं जहण्णओ हिदिउदओ होइ । तत्थ जट्ठिदिउदयो वि तचियो चेव, तम्हा जट्ठिदिउदयो तचियो चेवे चि भणिदं । * जहिदिसंतकम्मं संखेज्जगुणं । $ ३७१. अब जघन्य स्थिति अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए कहते हैं * जघन्यरूपसे मिथ्यात्वकी एक स्थिति प्रमाण उदीरणा है, उदय है और सत्कर्म है । 5 ३७२. यथा-उदीरणा तो प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके एक समय अधिक आवलिमात्र मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके शेष रहने पर एक स्थितिमात्र हो कर जघन्य होती है । उदय भी आवलि प्रविष्ट प्रथम स्थितिवाले उसी जीवके जघन्य होता है। तथा सत्कर्म भी दर्शनमोह-क्षपक मिथ्यादृष्टि जीवके दो समयप्रमाण एक स्थिति सत्कर्मको ग्रहण कर एक स्थितिरूप जघन्य होता है। इसलिए मिथ्यात्वको जघन्य स्थिति उदीरणा, जघन्य स्थिति उदय और जघन्य स्थिति सत्कर्म एक स्थितिमात्र होकर सबसे स्तोक होते हैं। विशेषार्थ—जो जीव दर्शनमोहनीयकी उपशमना कर रहा है उसके मिथ्यात्वकी प्रयम स्थितिमें एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितियोंके शेष रहने पर उदयावलिके बाहरकी एक स्थितिकी उदीरणा होने पर उदीरणा एक स्थितिप्रमाण होती है। उसीके उदयावलिमें प्रवेश करने पर प्रत्येक समयमें एक आवलिकाल तक मिथ्यात्वकी एक स्थितिका उदय होता है। तथा जिस दर्शनमोहनीयके क्षपकके मिथ्यात्वकी दो समयप्रमाण एक स्थिति शेष रहती है उसके मिथ्यात्वकी एक स्थितिका सत्त्व होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * यस्थिति उदय उतना ही है । $ ३७३. क्योंकि मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके आवलिके भीतर प्रविष्ट होनेपर आवलिप्रमाण काल तक जघन्य स्थिति उदय होता है। वहाँपर यत्थिति उदय भी उतना ही है, इसलिए यस्थिति उदय उतना ही है यह कहा है। * उससे यत्स्थितिसत्कर्म संख्यातगुणा है । ४२
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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