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________________ गा० ६२ ] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए णाणाजीवेहिं भंगविचयाणुगमो २३ ४७. णाणाजीबेहिं भंगविचयाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०-अप्प०-अवट्ठि० णियमा अत्थि, सिया एदे च अवत्तव्वगो च, सिया एदे च अवत्तव्वगा च । एवं तिरिक्खा० । णवरि अवत्तव्वं गत्थि । आदेसेण णेरइय० भुज०-अप्प० णियमा अत्थि, सिया एदे च अवविदगो च, सिया एदे च अवविदगा च । एवं सव्वणेरइय०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-सव्वदेवा त्ति । मणुसतिये भुज०-अप्प० णिय० अस्थि, सेसपदा भयणिजा । मणुसअपज० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं जाव। ___४८. भागाभागाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज-उदी० सव्वजी० केव० भागो ? दुभागो सादि० । अप्प० दुभागो देसूणो । अवढि० असंखे०भागो। अवत्त० अणंतभागो। एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज०-देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं सव्वढे । गवरि अवढि० संखे० भागो। मणुसेसु भुज० दुभागो सादिरे० । अप्प० दुभागो देसू० । अवढि०-अवत्त० विशेषार्थ—यहाँ सर्वत्र, यथायोग्य अपनी-अपनी कायस्थिति और भवस्थितिको जानकर अवस्थित उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए। शेष कथन सुगम है। $ ४७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगवि वयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवक्तव्य पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव है और नाना अवक्तव्य पदके उदीरक जीव हैं। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पदके उदीरक जीव नहीं हैं। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर पदके उदीरक जीव नियमसे हैं, कदाचित् ये नाना जीव हैं और एक अवस्थित पदका उदीरक जीव है, कदाचित् ये नाना जीव हैं और नाना अवस्थित पदके उदीरक जीव हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें भुजगार और अल्पतरपदके उदीरक जीव नियमसे हैं, शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब पद भजनीय हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । ३८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार पदके उदीरक जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? साधिक द्वितीय भागप्रमाण हैं। अल्पतरपदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण हैं । अवस्थित पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अवक्तव्य पदके उदीरक जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्ज, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जान लेना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवस्थित पदके उदीरक जीव संख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्योंमें भुजगार पदके उदीरक जीव साधिक द्वितीय भागप्रमाण है। अल्पतर पदके उदीरक जीव कुछ कम द्वितीय भागप्रमाण है। अवस्थित और अवक्तव्य पदके उदीरक जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनु
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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