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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए वड्डीए अप्पावहुअं १७९ सोलसक०–अट्ठणोक० – सम्म० - सम्मामि० ओघं । णवुस० मिच्छत्तभंगो। णवरि पञ्ज० इत्थवेदो णत्थि । णवं स० पुरिसभंगो । जोणिणीसु पुरिसवेद - णवं स० थि । इत्थवे अवत्त० णत्थि । $ ४८३. पंचि०तिरि० अपज० - मणुस अपज • मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० ओघं । णवरि मिच्छ० - णवुंस० अवत्तव्वं णत्थि । मणुसा० पंचिदियतिरिक्खभंगो । नवरि सम्म० - सम्मामि ० - इत्थिवे ० - पुरिसवेद ० संखे ०गुणं कादव्वं । एवं पत्त - मणुसिणीसु । णवरि संखे०गुणं कादव्वं । पञ्जत्तेसु इत्थिवेदो णत्थि । णवुंस० पुरिसवेदभंगो | मणुसिणी ० पुरिसवे ० - णव स० णत्थि । इत्थिवे० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवट्टि ० संखे ० गुणा । उवरि मणुस्सोघं । $ ४८४. देवाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि णवं स० णत्थि । इत्थवे०-पुरिसवे० अवत्त ० णत्थि । एवं भवणादि सोहम्मा त्ति । एवं सणक्कुमारादि जाव णवगेवजाति । णवरि इत्थवेदो णत्थि । ९४८५. अणु दिसादि जाव अवराजिदा ति सम्म० सव्वत्थोवा अवत्त ० । के समान है | सोलह कषाय, आठ नोकषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघ समान है । नपुंसकवेदका भंग मिध्यात्वके समान है । इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है। इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है । योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । इनमें स्त्रीवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । $ ४८३. पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायों का भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्व और नपुंसक - वेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । मनुष्यों में पचेन्द्रिय तिर्योंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व कहते समय असंख्यातगुणेके स्थान में संख्यातगुणा करना चाहिए । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिए । मनुष्य पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है । इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके भंगके समान है। मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । इनमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदोरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव संख्यातगुणे हैं। इससे आगे सामान्य मनुष्योंके समान भंग है । $ ४८४. देवोंमें पचेन्द्रिय तिर्यश्नोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा नहीं है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सौधर्म-ऐशान कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। तथा इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है। कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । $ ४८५. अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सम्यक्त्व अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अनन्तभागवृद्धि और अनन्तभागहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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