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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ $ ४४. जह० पदं । दुविहो णि० -- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० जह० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० सव्वद्धा । एवं सव्वणिरयसव्वतिरिक्ख - सव्वदेवात्ति । मणुसतिये एवं चैव । मणुसअपज० मोह० जह० जह० एगस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अजह० जह० एस ०, उक्क० पलिदो ० असं भागो । एवं जाव० । ४५. अंतरं दुविहं – जह० उबक० । उवकरसे पयदं । दुविहो णि० - - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० छम्मासं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं मणुसतिये | णवरि मणुसिणीसु वासपुधत्तं । आदेसेण णेरइय० १९८ विशेषार्थ -- इन मार्गणाओंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा करनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यात है, इसलिए अत्र ट्यत् सन्तानकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है। $ ४४. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघ मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च और सब देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यत्रिकमें इसी प्रकार कालप्ररूपणा है । मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अजघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । विशेषार्थ - - पहले एक जीवकी अपेक्षा कालका निर्देश करते हुए मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं, वह काल यहाँ भी उसी प्रकार बन जाता है। कारण कि नाना जीव मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा एक समय में करके दूसरे समय में अजघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा करने लगें और कोई अन्य जीव जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा न करें यह भी सम्भव है और अत्रुट्यत् सन्तानरूपसे निरन्तर आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक क्रमसे नाना जीव मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंकी उदीरणा करें यह भी सम्भव है । इस प्रकार विचार करने पर मोहनीयके जघन्य प्रदेशोंके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिए वह उतना कहा है। शेष कथन सुगम है । यहाँ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागों का योग भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा इतना विशेष जानना चाहिए । शेष कथन सुगम है । $ ४५. अन्तर दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके उत्कृष्ट | प्रदेशोंके उदीरकोंका जधन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । अनुत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्यिनियोंमें वर्षपृथक्त्व है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंके उदीरकोंका
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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