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उदीरणाका यथासम्भव अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर विस्तारसे विचार किया गया है । इस दृष्टि से विचार करते हुए उसके मूलप्रकृति प्रदेश उदीरणा और उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणा ये दो भेद किये गये हैं ।
५. मूल प्रकृति प्रदेशउदीरणा
उनमें से मूल प्रकृतिप्रदेश उदीरणाका परामर्श करते हुए चूर्णिसूत्रमें मात्र उसकी सूचना की गई है । इस सम्बन्धी समस्त विवरण उच्चारणाके अनुसार २३ अनुयोगद्वारों तथा भुजगार आदि अधिकारों द्वारा निबद्ध किया गया है । २३ अनुयोगद्वार वे ही हैं जिनका नाम निर्देश मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका परिचय कराते समय कर आये हैं । यहाँ यह बात विशेष रूपसे ध्यान देने योग्य हैं कि मोहनीय यह अप्रशस्तं कर्म है, इसलिए जो तत्प्रायोग्य जीव इसकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा करता है उसके इसकी प्रदेशउदीरणा प्रायः जघन्य होती है और जो जीव इसको जघन्य अनुभाग उदीरणा करता है उसके इसकी प्रदेशउदीरणा उत्कृष्ट होती है । यह तथ्य इनके उत्कृष्ट और जघन्य स्वामित्वं पर दृष्टिपात करनेसे भले प्रकार विदित हो जाता है । उदाहरणार्थ जो क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अपने कालमें एक समय अधिक एक आवलि काल शेष रहने पर मोहनीयके जघन्य अनुभागकी उदीरणा करता है वही जीव मोहनीयके उत्कृष्ट प्रदेशोंकी उदीरणा करता है । इसी प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा और उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके विषय में भी यथासम्भव जान लेना चाहिए। इसका कारण यह है कि जहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उत्कृष्ट संक्लिष्ट तत्प्रायोग्य जीवके होती है वहाँ उसकी जघन्य अनुभाग उदीरणा क्षपकके अन्तिम अनुभाग उदीरणाके समय होती । किन्तु इसके विपरीत जहाँ मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपकके अन्तिम प्रदेश उदीरणाके समय होती है वहीं इसकी जघन्य प्रदेश उदीरणा सर्वसंक्लिष्ट या तत्प्रायोग्य संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि होती है ।
प्रकृति उदीरणामें तो इस प्रकारसे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यका भेद है नहीं, इसीलिए उसकी प्ररूपणा करते समय इस अपेक्षासे विवेचन नहीं किया गया है। हाँ स्थिति उदीरणा में ये उत्कृष्टादि भेद अवश्य ही सम्भव हैं सो वहीं इसके विचारका आधार कुछ भिन्न प्रकारका है। बात यह है कि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति उदीरणाका सम्बन्ध उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ है। जो जीव मोहनीयका उत्कृष्ट स्थिति • बन्ध करता है वही जीव एक आवलि काल जाने पर उसकी उत्कृष्ट स्थितिका उदीरक होता है । उस समय वह उत्कृष्ट संक्लिष्ट है या नहीं यह विचार यहाँ मुख्य नहीं है। हाँ उसकी जघन्य स्थिति उदीरणाका स्वामी वही जीव है जो उसकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका स्वामी है। कारण स्पष्ट है । बात यह है क्षपकश्रेणिमें विशुद्धि वश जैसे अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागमें उत्तरोत्तर हानि होती जाती है उसी प्रकार सब कर्मों की स्थिति में भी उत्तरोत्तर हानि होती जाती है। इसलिए जो सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य अनुभाग उदीरणाका स्वामी है वही जघन्य स्थिति उदीरणाका भी स्वामी है। किन्तु मोहनीयकी सभी उत्तर प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उदीरणाको प्राप्त करनेके लिए यह नियम नहीं लागू करना चाहिए। उसका कारण अन्य है, जिसका विशेष स्पष्टीकरण उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणाका विवेचन करते समय करेंगे ।
यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि मोहनीयकी प्रदेश उदीरणाका विवेचन जिन २३ अनुयोगद्वारों और भुजगार आदि अधिकारों द्वारा किया गया है उनका विशेष ऊहापोह उन उन अधिकारोंमें किया ही है, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए। विशेष वक्तव्य न होनेसे यहाँ हम पृथक् पृथक् स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं ।
६. उत्तरप्रकृति प्रदेश उदीरणा
उत्तर प्रकृति प्रदेश उदीरणाका विचार भी पूर्वोक्त २४ अनुयोगद्वार और भुजगार आदि अधिकारोंके द्वारा किया गया है । यहाँ स्वामित्वके सम्बन्धमें विचार करते समय अनुभाग- प्रदेश उदीरणा सम्बन्धी जिन