SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [9] प्रकारको सम्भव है । यहाँ यह स्पष्ट रूपसे जानना चाहिए कि प्रारम्भके चारों गुणस्थानों और सभी जीवसमासोंमें चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी यह अनुभाग उदीरणा देशघाति और सर्वघाति रूपसे दोनों प्रकारकी बन जाती है, क्योंकि संक्लेश और विशुद्धि रूप परिणामोंका ऐसा ही माहात्म्य है। इस प्रकार संज्ञा और उसके अवान्तर भेदोंका तथा उच्चारणाके अनुसार उत्कुष्ट आदि अनुयोगद्वारोंका निरूपण करनेके बाद चूर्णिसूत्रों द्वारा मिथ्यात्व आदि सभी कर्मों की उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग उदीरणाके स्वामित्वका विचार करते समय एक महत्त्वपूर्ण विषयकी चर्चा की गई है। बात यह है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामी ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवको बतलाया गया है जो सब पर्याप्तयोंसे पर्याप्त है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाला है। अब प्रश्न यह है कि उक्त जीवके यह उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले जीवके ही होती है या अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले जीवके भी हो सकती है ? यदि मात्र उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले जीवके ही मानी जाती है तो जो जीव स्थावरका से आकर त्रसोंमें उत्पन्न हुआ है उसके तो प्रारम्भमें उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका सद्भाव बनेगा ही नहीं, उसके तो मात्र अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म ही होता है, क्योंकि वह द्विस्थानीय है । और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय होकर ज्यों ही सत्कर्मको उदीरणा करता है तब उसके चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागका ही बन्ध होता है। अब यदि इस चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके उत्कृष्ट संक्लेश परिणाम नहीं माने जाते हैं तो वह कभी भी उत्कृष्ट अनुभागके बन्धके योग्य नहीं हो सकता, और जब वह उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंके अभावमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध ही नहीं करेगा. तो वह उसके अभावमें उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंका अविनाभावी उत्कृष्ट अनुभागका उदीरक कैसे हो सकेगा अर्थात् त्रिकालमें नहीं हो सकेगा। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि १. जो संज्ञी पन्चेन्द्रिय चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागका उदीरक है उसके भी उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाम हो सकते हैं। २. जब कि उसके उत्कृष्ठ संक्लेशरूप परिणाम हो सकते हैं तो वह जहाँ उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कर सकता है वहां वह अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्ममें से भी उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा कर सकता है। इतना अवश्य है कि यह अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाके योग्य होना चाहिए। समग्र कथनका तात्पर्य यह है कि जो उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला या तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाला उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे युक्त संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीव है वह मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामी है। इसी प्रकार यथायोग्य सब प्रकृतियोंके भी उत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग सत्कर्मके स्वामीका विचार चूर्णिसूत्रोंके अनुसार कर लेना चाहिए। इस विषयमें अन्य विशेष वक्तव्य नहीं होनेसे यहाँ अलगसे स्पष्टीकरण नहीं कर रहे हैं यहाँ हमने संज्ञा और स्वामित्व अनुयोगद्वारोंका संक्षेपमें स्पष्टीकरण किया है। इनके सिवाय अन्य जितने भी अनुयोगद्वार और भुजगारादि अधिकार हैं उन सबका स्पष्टीकरण इस अधिकारमें विस्तारसे किया हो गया है, इसलिए यहां उनका अलग-अलग स्पष्टीकरण नहीं किया है। इतना अवश्य है कि एक जीवकी अपेक्षा काल और अन्तर तथा अल्पबहुत्व इनका विचार जहाँ चूर्णिसूत्रोंमें किया गया है वहाँ इन सहित सभी अनुयोगद्वारोंका स्पष्ट खुलासा उच्चारणाके अनुसार किया गया है। मात्र एक जीवको अपेक्षा अन्तर प्ररूपणाका कथन करनेके बाद एक चूणिसूत्र अवश्य आया है जिसमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष और अल्पबहुत्व इन अधिकारों की सूचना मात्र की गई है। तथा २४ अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणाके समाप्त होनेके बाद एक चूर्णिसूत्र और है, जिसमें भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि इन तोन अनुयोगद्वारों के जाननेकी सूचना की गई है। ४. मोहनीय प्रदेशउदीरणा इसके बाद मोहनीय प्रदेश उदीरणाका प्रकरण प्रारम्भ होता है । इस प्रकरणमें मोहनीयके प्रदेशोंको
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy