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________________ गा० ६२] मूलपयडिअणुभागउदीरणाए कालो देवस्से त्ति ण भाणिदव्वं । आदेसेण णेरइय० भुज-अप्प०-अवट्ठि० ओघं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्खतिय-देवा भवणादि जाव णवगेवजा त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०मणुसअपज्ज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सव्वपदा कस्स ? अण्णद० । एवं जाव । ४४. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण य । ओघेण भुज०-अप्प० जह०' एयस०, उक्क० अंतोमु० । अवढि० जह० एयस०, उक्क० संखेजा समया। अवत्त० जह० उक्क० एगस० । आदेसेण णेरइय० भुज-अप्प०-अवढि० ओघं । एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज-सव्वदेवा त्ति । मणुसतिये ओघं । एवं जाव० । ४५. अंतराणु० दु० णि०-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मोह० भुज०-अप्प० चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें 'प्रथम समवर्ती देवके होती है' यह नहीं कहलाना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितपदका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, तिर्यञ्चत्रिक, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त तथा नौ अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब पद किसके होते हे ? अन्यतरके होते हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए। $ ४४. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे भुजगार और अल्पतर अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अवस्थित अनुभागके उदीरकका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवक्तव्य अनुभागके उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट काल समय है। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार, अल्यतर और अवस्थित अनुभागके उदीरकका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यत्रिकमें ओघके समान भंग है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ—कोई एक जीव यदि मोहनीयके अनुभागकी भुजगार और अल्पतर उदीरणा करता है तो परिणामप्रत्यय वश कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्तकाल तक करता है, इसलिए इन पदोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। मात्र अवस्थित उदीरणा अधिकसे अधिक संख्यात समय तक सकती है, इसलिए इस पदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। अवक्तव्य उदीरणा उपशमश्रोणिसे उतरते समय एक समय तक ही होती है या उपशमश्रेणिमें मोहनीयका अनुदीरक होकर मरकर देव होने पर प्रथम समयमें एक समय तक होती है, इसलिए इसकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। यह ओघसे कालका विचार है। इसी प्रकार यथासम्भव गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें जान लेना चाहिए। ४५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके भुजगार और अल्पतर उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट १. आ. प्रतौ भुज० जह० इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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