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४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ वेदगो७ १०८. थावरकायादो आगंतूण तसकाइएसुप्पण्णस्साणुभागसंतकम्ममणुक्कस्सं होइ, विट्ठाणियत्तादो । पुणो एदं संतकम्ममुदीरेमाणो पंचिंदियो चउट्ठाणमणुक्कस्साणुभागं बंधदि । संपहि एवं विहाणोण बद्धचउट्ठाणियाणुक्कस्साणुमागसंतकम्मेण सो चेव उक्कस्साणुभागबंधपाओग्गो वि होइ, सब्बुक्कस्ससंकिलेसपरिणामेण परिणदस्स तस्स तदविरोहादो । जइ वुण उक्कस्साणुभागसंतकम्मेण विणा उक्कस्साणुभागुदयो उदीरणा वा ण होदि चि णियमो तो तस्स उक्कस्सोदयाभावेण तदविणाभविउक्सस्ससंकिलेसाभावादो उक्कस्साणुभागबंधो सव्वकालं ण होज ? ण च एवं, तहा संते उक्कस्साणुभागुप्पत्तीए तत्थाभावप्पसंगादो। तदो उक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स तप्पाओग्गाणुक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स वा सण्णिमिच्छाइडिस्स सव्वसंकिलिट्ठस्स उक्कस्साणुभागुदीरणासामिनं होदि चि णिच्छेयव्वं । एवं मिच्छतस्स उक्कस्साणुभागुदीरणासामित्तविणिण्णयं कादूण संपहि एदेणेव गयत्थाणमण्णेसि पि कम्माणं पयदसामिनसमप्पणट्ठमुत्तरसु भणइ
* एवं सोलसकसायाणं ।
$१०९. सुगममेदमप्पणासुनं । एत्थ सबुक्कस्ससंकिलिटुंमिच्छाइटिअणुभागुदीरणाए सामिनविसईकयाए माहप्पजाणावणट्ठमेदमप्पाबहुअमणुगंतव्वं । तं जहा–सम्म
$ १०८. स्थावरकायिकोंमेंसे आकर त्रसकायिकोंमें उत्पन्न हुए जीवके अनुभाग सत्कर्म अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि वह द्विस्थानीय है। पुनः इस सत्कर्मकी उदीरणा करनेवाला पञ्चेन्द्रिय जीव चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है। अब इस विधिसे बन्धको प्राप्त हुए चतुःस्थानीय अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके द्वारा वही जीव उत्कृष्ट अनुभागबन्धके योग्य भी होता है, क्योंकि सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामसे परिणत हुए उस जीवके उसके होनेमें कोई विरोध नहीं है । किन्तु यदि उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके विना उत्कृष्ट अनुभागका उदय या उदीरणा नहीं होती है ऐसा नियम हो तो उसके उत्कृष्ट उदयका अभाव होनेसे उसका अविनाभावी उत्कृष्ट संक्लेशका अभाव होनेसे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सर्व काल नहीं होगा। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर वहाँ पर उत्कृष्ट अनुभागकी उत्पत्तिका अभाव प्राप्त होता है। इसलिए उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले या तत्प्रायोग्य अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मवाले सर्व संक्लिष्ट संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व है ऐसा यहाँ निश्चय करना चाहिए । इस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणाके स्वामित्वका निर्णय करके अब इसीके द्वारा जिनके अर्थका ज्ञान हो गया है ऐसे अन्य कर्मोके भी प्रकृत स्वामित्वका ज्ञान करानेके लिए आगे का सूत्र कहते हैं
* इररी प्रकार सोलह कषायोंको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणाका स्वामित्व जानना चाहिए।
$ १०९. यह अर्पणासूत्र सुगम है । यहाँ पर स्वामित्वकी विषयभूत सर्वोत्कृष्ट संक्लेश परिणामवाले मिथ्यादृष्टिसम्बन्धी अनुभाग उदीरणाके माहात्म्यका ज्ञान करानेके लिए यह अल्पबहुत्व जानना चाहिए । यथा-सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि