SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 57
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ एवमेदेण सुत्तेण मिच्छत्त-बारसकसायाणमणुभागुदीरणाए उकस्साणुक्कस्सजहण्णाजहण्णभेयभिण्णाए सव्वघादित्तमणवयवेण परूविदं, तत्थ पयारंतरासंभवादो। * दुट्ठाणिया तिहाणिया चउहाणिया वा।। ८४. कुदो ? मिच्छत्त-बारसकसायाणमुक्कस्साणुभागुदीरणाए चउट्ठाणियत्तदंसणादो, तेसिं चेवाणुक्कस्साणुभागगुदीरणाए चउट्ठाण-तिट्ठाण-दुट्ठाणियत्तदंसणादो। * सम्मत्तस्स अणुभागमुदीरणा देसघादी। 5 ८५. कुदो ? मिच्छत्तुदीरणाए इव सम्मत्तुदीरणाए सम्मत्तसण्णिदजीवपज्जायस्स अञ्चंतुच्छेदाभावादो। * एयवाणिया वा दुट्ठाणिया वा। १८६. कुदो ? सम्मत्तजहण्णाणुभागदीरणाए एगट्ठाणियत्तदंसणादो, तदुक्कस्साणुभागुदीरणाए दुट्ठाणियत्तदसणादो। * सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागउदीरणा सव्वघादी विट्ठाणिया। ६८७. कुदो ताव सव्वघादिगं? मिच्छसोदीरणाए इव सम्मामिच्छचोदीरणाए वि सम्मत्तसण्णिदजीवगुणस्स णिम्मूलविणासदसणादो। एसा वुण दुहाणिया घेव। दो? सम्मामिच्छगाणुभागम्मि दुढाणिय मोत्तूण पयारंतरासंभवादो। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा मिथ्यात्य और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्यके भेदसे भिन्नताको प्राप्त हुई अनुभाग उदीरणाका सर्वघातिपना सामान्यरूपसे कहा, क्योंकि वहाँ प्रकरान्तर सम्भव नहीं है। * वह द्विस्थानीय है, त्रिस्थानीय है और चतुःस्थानीय है। $ ८४. क्योंकि मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय देखी जाती है तथा उन्हींकी अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा चतुःस्थानीय, त्रिस्थानीय और द्विस्थानीय देखी जाती है। * सम्यक्त्वकी अनुभाग उदीरणा देशघाति है ।। $ ८५. क्योंकि जिस प्रकार मिथ्यात्वको उदीरणासे सम्यकत्वपर्यायका अत्यन्त उच्छेद होता है उस प्रकार सम्यक्त्वकी उदीरणासे सम्यक्त्व संज्ञावाली जीवपर्यायका.अत्यन्त उच्छेद नहीं होता। * वह एकस्थानीय है और द्विस्थानीय है। $ ८६. क्योंकि सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय देखी जाती है तथा उसको उत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय देखी जाती है। * सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभाग उदीरणा सर्वघाति और द्विस्थानीय है। ६८७. शंका-इसका सर्वघातिपना कैसे है ? समाधान-मिथ्यात्वको उदीरणासे जिस प्रकार सम्यक्त्वगुणका निर्मूल विनाश होता है उसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी उदीरणासे भी सम्यक्त्व संज्ञावाले जीवगुणका निर्मूल विनाश देखा जाता है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy