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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पोसणं ९५ सणक्कुमारादि जाव सहस्सार ति सव्वपय० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोइस० देखणा | आणदादि जाव अच्चुदा ति सव्वपय उक्क० अणुक्क ० लोग० असंखे ० भागो छ चोदस० देणा । उवरि खेत्तं । एवं जाव० । $ २३३. जह० पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०सोलसक० - सत्तणोक ० ० जह० लोग० असंखे० भागो । अजह० सव्वलोगो । सम्म० जह० खेत्तं । अजह० लोग० असंखे० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । सम्मामि० जह० अजह० लोग • असंखे ० भागो अट्ठ चोदस० देसूणा । इत्थवे ० - पुरिसवे० जह० खेत्तं । अजह • लोग • असंखे ० भागो अड्ड चोदस० देसूणा सव्वलोगो वा । $ २३४ आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० जह० खेत्तं । तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर क्षेत्रके समान भंग है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ २३३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात लोकपायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकक असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभाग के उदीरकोंने लोकके असंख्यातवं भाग और त्रसनालोके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यग्मिध्यात्वके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । स्त्रीवेद और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागके उदीरकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रस नालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । विशेषार्थ – मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषाय इनमें से कितनी ही प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग उदीरणा अपनी अपनी क्षपणाके समय स्वयोग्य स्थान पर होती है और कितनी ही प्रकृतियोंकी जधन्य अनुभाग उदीरणा संयमके अभिमुख हुए यथायोग्य गुणस्थानमें होती है, जिस सबका विशेष ज्ञान जघन्य स्वामित्वसे कर लेना चाहिए । यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन उक्त क्षेत्रप्रमाण कहा है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य अनुभाग उदीरणा भी क्षपणामें एक समय अधिक एक आवलिकाल रहने पर होती है, यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इसकी अपेक्षा भी जघन्य अनुभागके उदीरकोंका उक्त क्षेत्रप्रमाण स्पर्श' कहा है। शेष कथन सुगम है। गति मार्गणाके अवान्तर भेदोंमें भी अपना-अपना स्वामित्व और उस उसे मार्गणाका स्पर्शन जानकर प्रकृत स्पर्शन समझ लेना चाहिए । $ २३४. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंके जघन्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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