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________________ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पा बहुअं ३६३ करणावलियचरिमसमये वट्टमाणस्स अधापवत्तसंकमजहण्णदव्वग्गहणादो । को गुणगारो १ पलिदो० असंखे०भागो, असंखेजाणि पलिदोवमपढमवग्गमूलाणि । $ ५०३. संतकम्ममसंखेज्जगुणं । कुदो १ खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवगसेटिं चढणुम्हस अधापवत्तकरणचश्मिसमये दिवढगुणहाणिमेत्ते इंदियसमयपवद्धे घेत्तण जहणसामित्तविहाणादो। एत्थ गुणगारो अधापवत्तभागहारो एवमेसो अत्थविसेसो एत्थ जाणेयव्वोत्ति एसो सुत्तस्स भावत्थो । * इत्थि-णवुंसयवेद-अरइ-सो गाणं जहण्णिया पदेसुदीरणा थोवा । ९.५०४. किं पमाणमेदं दव्वं ? असंखेजलोगपडिभागिय मिच्छाइट्ठिउदीरिददव्वमेत्तं । तदो सव्वत्थोत्तमेस्स ण विरुज्झदे | * संकमो असंखेज्जगुणों । ६५०५. किं कारणं १ अप्पप्पणो पाओग्गखविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण खवणाए अदिस अधापवत्तकरणचरिमसमये विज्झादसंकमेण जहण्णसामित्तपाडलंभादो | एत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा । शिकलक्षणसे आकर क्षपणाके लिए उद्यत हुए तथा अपूर्वकरणसम्बन्धी आवलिके अन्तिम समय में विद्यमान जीवके अधःप्रवृत्तसंक्रमरूपसे जघन्य द्रव्यको ग्रहण किया है । शंका- गुणकार क्या है ? समाधान- - पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग गुणकार है जो पल्योपमके असंख्यात प्रथम वर्गमूलप्रमाण है । $ ५०३. लोभसंज्वलनके जघन्य संक्रमसे उसका जघन्य सत्कर्म असंख्यातगुणा है, क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर क्षपकश्रेणिपर चढ़नेके लिए सन्मुख हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें डेढ़ गुणहानिमात्र एकेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्धोंको ग्रहणकर जघन्य स्वामित्वका विधान किया है। यहाँ पर गुणकारअधः प्रवृत्त भागहारप्रमाण है। इसलिए यह अर्थविशेष यहाँ पर जानना चाहिए यह सूत्रका भावार्थ है । * स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति और शोककी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है । $ ५०४. शंका इस द्रव्यका कितना प्रमाण है ? - समाधान—असंख्यात लोकका भाग देने पर जो एक भागकी मिध्यादृष्टि जीव उदीरणा करता है तत्प्रमाण है । इसलिए इसका सबसे स्तोकपना विरोधको नहीं प्राप्त होता । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ५०५. क्योंकि अपने-अपने प्रायोग्य क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आंकर क्षपणाके लिए उद्यत हुए जीवके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा जघन्य स्वामित्व प्राप्त - होता है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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