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________________ ३६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ ___ * एवं माणमायासंजलणपुरिसवेदाणं वंजणदो च अत्थदो च कायव्वं । ५०१ जहा कोहसंजलणस्स जहण्णपदेसप्पाबहुअं कदमेवमेदेसि पि कम्माणं कायव्वं विसेसाभावादो । तं पुण कथं कायव्वमिदि भणिदे 'वंजणदो च अत्थदो च कादव्वं' इति युत्तं। शब्दतश्चार्थतश्च कर्तव्यमित्यर्थः न शब्दगतोऽर्थगता वा कश्चिद्विशेषोऽस्तीत्यमिप्रायः। तदो कोहसंजलणजहण्णप्पाबहुआलावो अणणाहिओ एदेसि पि कम्माणमणुगंतव्यो त्ति सिद्धं । * लोहसंजलणस्स वि एसो चेव आलावो । णावरि अत्थेण णाणत्त, वंजणदो ण किंचि णाणत्तमत्थि। ६५०२ अत्थदो वुण को विसेससंभवो अस्थि सो जाणियव्वो त्ति भणिदं हाइ । को वुण सो अत्थगओ विसेसो चे? जहण्णसंकमसंतकम्मेसु दबगओ विसेसो त्ति भणामो । तं जहा-लोहसंजलणस्स जहणिया पदेसुदीरणा थोवा । उदयो असंखे० गुणो । बंधो असंखे गुणो। एत्थ पुव्वं व गुणगारो वत्तव्यो, विसेमाभावादो । संकमो असंखेजगुणो । कुदो ? खविदकम्मसियलणणेणागंतूण खवणाए अब्भुट्टिदस्स अपुन्व ____* इसी प्रकार मानसंज्वलन, मायासंज्वलन और पुरुषवेदका व्यञ्जन और अर्थ दोनों प्रकारसे अल्पबहुत्व करना चाहिए। ६५०१. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेश अल्पबहुत्व किया है उसी प्रकार इन कोंका भी करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । परन्तु वह कैसे करना चाहिए ऐसी पृच्छा होने पर, 'व्यञ्जन और अर्थ दोनों प्रकारसे करना चाहिए' यह कहा है। शब्द रूपसे और अर्थरूपसे करना चाहिए यह उक्त कथनका अर्थ है। शब्दगत और अर्थगत कोई विशेषता नहीं है यह उक्तवचनका अभिप्राय है। इसलिए क्रोधसंज्वलनका न्यूनाधिकतासे रहित जघन्य अल्पबहुत्वालाप इन कर्मोंका भी जानना चाहिए यह सिद्ध हुआ। * लोभसंज्वलनका भी यही आलाप है । इतनी विशेषता है कि अर्थकी अपेक्षा नानात्व है, व्यञ्जनकी अपेक्षा कुछ भी नानात्व नहीं है। $ ५०२. अर्थकी अपेक्षा तो जो विशेष सम्भव है वह जान लेना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-वह अर्थगत विशेष क्या है ? समाधान—जघन्य संक्रम और जघन्य सत्कर्म इनमें द्रव्यगत विशेष है ऐसा हम कहते हैं। यथा-लोभसंज्वलनकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है। उससे उदय असंख्यातगुणा है। उससे बन्ध असंख्यातगुणा है । यहाँ पर गुणकारका कथन पूर्वके समान करना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है। उससे संक्रम असंख्यातगुणा है, क्योंकि क्षपितकर्मा १. आ० प्रतौ चेर इति पाठः।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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