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________________ ३६१ गा०६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं 5 ४९८. किं कारणं ? सुहुमेहंदियउववादजोगेण बद्धसमयपबद्धस्स गहणादो। एत्थ गुणगारो असंखेजलोगा। संकमो असंखजगुणो । ४९९. किं कारणं ? जहण्णबंधो णाम एइंदियजहण्णोववादजोगेण वद्धेयसमय पबद्धमेत्तो । संकमो पुण पंचिंदियघोलमाणजहण्णजोगेण बद्धकोहसंजलणचरिमणवकबंधस्स असंखे०भागमेत्तो, बंधसमयादो समयणदोआवलियमेत्तं गंतूण असंखे० भागे सत्थाणेचेव उवसामिय तदसंखे०भागमेत्तदव्बमधापत्तसंकमेण संकामेमाणमुवसामियम्मि पयदजहण्णसामित्तदंसणादो। तदो घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धेयसमयपबद्धस्स असंखे० भागमेत्तो होदण एसो पुग्विन्लदव्यादो' असंखेज्जगुणो त्ति घेत्तव्वं । जोगगुणगारादो अधापवत्तभागहारस्स असंखे०गुणहीणचादो जोगगुणगारस्स असंखे०भागमेत्तो एत्थ गुणगारो वत्तव्यो । * संतकम्ममसंखेजगुणं । $ ५०० किं कारणं ? अणियट्टिखवगम्मि कोधवेदगचरिमसमयघोलमाण जहण्णजोगेण बद्धणवकबंधस्स असंखेज्जे भागे घेत्तण चरिमफालिविसए जहण्णसामित्तावलंबणादो । एत्थ गुणगारो पलिदो० असंखे० भागो । $ ४९८. क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके उपपाद योगसे बद्ध समयबद्धको यहाँ ग्रहण किया है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । ६४९९. क्योंकि जघन्य बन्ध एकेन्द्रियजीवके जघन्य उपपाद योगसे बद्ध एक समयप्रबद्ध प्रमाण है । परन्तु संक्रम पञ्चेन्द्रिय जीवके घोलमान जघन्य योगसे बद्ध क्रोधसंज्वलनके अन्तिम नवकबन्धके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि बन्धसमयसे एक समय कम दो आवलिमात्र जाकर असंख्यातवें भाग में यो स्वस्थानमें ही उपशान्तकर उसके असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्यको अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा संक्रम करते हुए उपशामकके प्रकृत जघन्य स्वामित्व देखा जाता है। इसलिए घोलमाण जघन्य योगसे बद्ध एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग होकर यह पूर्वके द्रव्यसे असंख्यात गुणा है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। योगगुणकारसे अधःप्रवृत्त भागहार असंख्यातगुणा हीन होनेके कारण योगगुणकारका असंख्यातवां भाग गुणकार यहाँ पर कहना चाहिए। * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । ६५००. क्योंकि अनिवृत्तिकरण क्षपकके क्रोधवेदकके अन्तिम समयसम्बन्धी घोलमान जघन्य योगसे बद्ध नवकबन्धके असंख्यात बहुभागको ग्रहणकर अन्तिम फालिके आश्रयसे जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यहाँ पर गुणकार पल्योपमके असंख्यातव भागप्रमाण है। १. ता०प्रतौ पुन्विल्लादो इति पाठः । ४६
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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