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________________ www गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा १५५ पञ्जत्त० इत्थिवे. णत्थि । णस० पुरिसवेदभंगो। मणुसिणीसु पुरिस०-णवुस० पत्थि । इत्थिवेद० मिच्छत्तभंगो। ६४२३. देवेसु पंचिंतिरिक्खभंगो। णवरि गर्बुस० पत्थि । इलिगवेदपुरिसवेद० अवत्त० पत्थि। एवं भवण-वाण-०-जोदिसि० सोहम्मीसाण । एवं सणक्कुमारादि वगेवजा ति । णवरि इथिवेदो पत्थि । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म० सव्वत्थोवा अवत्त० । अवढि० असंखे गुणा । अप्प० असंखे गुणा । भुज० विसे । बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सव्वढे संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाव०। एवं भुजगारो समत्तो। $ ४२४. पदणिक्खेवे त्ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणिओगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं च। तत्थ समुक्त्तिणा दुविहा–जह० उक्क० । उक्क० पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वपयडी० अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठा। सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवा त्ति जाओ पयडीओ उदीरिजंति तासिमोघं । एवं जाव० । एवं जहण्णयं पिणेदव्वं । जीव विशेष अधिक हैं । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए। पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है। इनमें नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है। मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। इनमें स्त्रीवेदका भंग मिथ्यात्वके समान है। .. ६ ४२३. देवोंमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेद नहीं है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक नहीं हैं। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी तथा सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अल्पतर अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि सर्वार्थसिद्धिमें संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। . इस प्रकार भुजगार समाप्त हुआ। $ ४२४. पदनिक्षेपका प्रकरण है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उनमेंसे समुन्कीर्तना दो प्रकारको है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थान अनुभाग उदीरणा है । सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देव जिन प्रकृतियोंकी उदीरणा करते हैं उनका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । इसी प्रकार जघन्यको भी जानना चाहिए।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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