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________________ २६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो. सव्वपय० उक्क० पदेसुदी० जह• एगस०, उक्क० आवलि० असं०भागो । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असं०भागो।। २०२. देवा० सोहम्मादि जाव गवगेवजा ति सम्म०-सम्मामि० ओघं । सेसपय० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे०मागो । अणुक० सव्वद्धा । भवण-वाणवें०-जोदिसि० देवोघं । णवरि सम्म० उक्क० पदे० जह० एयसमओ, उक० आवलि० असं०भागो । अणुक० सव्वद्धा । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म० ओघं । बारसक०-सत्तणोक० उक्क. जह० एगस०, उक. आवलियाए असंखेजदिभागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं जाव० । जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्य भागप्रमाण है। विशेषार्थ—मनुष्यत्रिकका परिमाण संख्यात है, इसलिए इनमें सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बननेसे वह तत्प्रमाण कहा है। तथा एक जीवकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि संख्यात नाना जीव सन्ततिका विच्छेद हुए बिना सम्यग्मिथ्यात्व गुणको प्राप्त हों तो उस कालका योग अन्तर्मुहूर्त ही होगा, इसलिए यहाँ सम्यग्मिध्यात्वके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है यह तो स्पष्ट ही है। उत्कृष्ट काल जो दो प्रकारसे बतलाया है वह अवश्य ही विचारणीय है। चूर्णिसूत्रोंमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके स्वामित्वका जो निर्देश किया है उसे देखते हुए तो वह काल संख्यात समय ही बनता है । इसलिए आगमानुसार इसका विशेष स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। मेरी अल्प बुद्धिमें यह समझमें नहीं आया इसलिए इतना संकेत किया है। शेष कथन सुगम है। $२०२. समान्य देव और सौधर्म आदि कल्पोंसे लेकर नौवेयक तकके देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीस्कोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। विशेषार्थ-भवनत्रिकोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक 'समय और उत्कृष्टकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह तत्प्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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