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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिपदेसउदीरणाए खेत्तं पोसणं च २६७ $२०० तिरिक्खेसु मिच्छ० - सोलसक० - णवणोक० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । सम्म० - सम्मामि० ओघं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये | णवरि पज० इत्थवे० णत्थि । जोणिणीसु पुरिसवु स० णत्थि । सम्म० उक्क० पदे० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । पंचि०तिरि० ० अपज० सव्वपय० उक्क० पदे० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । $ २०१. मणुसतिये सम्मामि० उक्क० पदेसुदी० जह० एस ०, उक्क० संखेजा समया । अणुक० जह० उक्क० अंतोमु० । सेसपय० उक्क० पदे० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो संखे० समया वा । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुस अपज • विशेषार्थ — नारकियों में मिथ्यात्व, सोलह कपाय और सात नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणाके उपक्रमका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे यहाँ इनके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग ओघके समान है यह भी स्पष्ट है। पहली पृथिवीमें यह प्ररूपणा इसी प्रकार बन जाती है । मात्र द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते, इसलिए उनमें सम्यक्त्व के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाने से वह उक्तप्रमाण कहा है। T २०० तिर्यों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकपायोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओके समान है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है और योनिनियों में पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है । योनिनियों में सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है। विशेषार्थ — तिर्यञ्च योनिनियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर नहीं उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जानेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है | $ २०१. मनुष्यत्रिक में सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । शेष प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है अथवा संख्यात समय है ! अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका काल सर्वदा है । मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकोंका
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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