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________________ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पाबहुअणिदेसो ___६३७८.तं जहा-कदकरणिज्जचरिमसमये सम्मनस्स जहण्णट्ठिदिसंतकम्ममेगट्ठिदिमेत्तमुवलब्मदे। जहण्णट्ठिदिउदयो वि तत्थेव गहेयव्यो। अथवा कदकरणिञ्जचरिमावलियाए सव्वत्थेव जहण्णढिदिउदयो व समुवलब्भदे, तेचियमेनकालमेकिस्सेव द्विदीए उदयदंसणादो। पुणो कदकरणिजस्स समयाहियावलियाए द्विदिउदीरणा जहणिया होइ, एगहिदिविसयत्तादो । संकमो वि तत्थेव गहेयव्वो । एवमेदेसिमेगट्ठिदिपमाणनादो थोवामिदि सिद्धं । * जट्ठिविसंतकम्मं जट्ठिविउदयो च तत्तियो चेव । 5 ३७९. कुदो ? कदकरणिजचरिमसमए तेसिं पि एगद्विदिपमाणत्तदंसणादो । * सेसाणि जहिदिगाणि असंखेजगुणाणि । ३८०. कुदो ? समयाहियावलियपमाणत्तादो। ६३७८. यथा-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म एकस्थितिमात्र उपलब्ध होता है। जघन्य स्थितिउदय भी वहीं पर ग्रहण करना चाहिए । अथवा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिकी अन्तिम आवलिमें सर्वत्र ही जघन्य स्थिति उदय उपलब्ध होता है, क्योंकि उतने काल तक एक ही स्थितिका उदय देखा जाता है। तथा कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके सम्यक्त्वकी एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर स्थिति उदीरणा जघन्य होती है, क्योंकि प्रकृतमें जघन्य स्थितिउदीरणा एक उदयावलिके बाहरकी एक स्थितिकी ही होती है। संक्रमको भी वहीं पर ग्रहण करना चाहिए। इस प्रकार इन सबके एक स्थितिप्रमाण होनेसे स्तोकपना है यह सिद्ध हुआ। विशेषार्थ-कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके जब सम्यक्त्वकी अन्तिम आवलिप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब उसके प्रत्येक समयमें एक आवलि काल तक उदयस्वरूप एक ही स्थितिका उदय होता है, इसलिए यहाँ जघन्य स्थिति उदयको प्रकारान्तरसे एक स्थितिप्रमाण कहा है। शेष कथन सुगम है। * यस्थितिसत्कर्म और यस्थितिउदय उतना ही है । ६ ३७९. क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें ये दोनों भी एक स्थितिप्रमाण देखे जाते हैं। विशेषार्थ—पूर्वमें मिथ्यात्वके जघन्य यस्थितिउदयका जिस प्रकार स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार यहाँ पर इन दोनोंका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए। * उनसे शेष यत्स्थितिक असंख्यातगुणे हैं। ६ ३८०. क्योंकि वे समयाधिक एक आवलिप्रमाण हैं। विशेषार्थ—यहाँ पर 'शेष' पदसे यस्थितिउदीरणा, और यस्थितिसंक्रम लिया गया प्रतीत होता है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण स्थितिके शेष रहनेपर जिस उपरितन स्थितिकी उदीरणा होती है, वह अपकर्षणपूर्वक होती है और अपकर्षण संक्रमका एक भेद है, इसलिए यत्स्थितिसंक्रम भी उतना ही जानना चाहिए।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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