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________________ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए पदमिक्खेव सामित्तं १६१ $ ४३९. तिरिक्खेसु मिच्छ० अनंताणु ०४ ओघं । णवरि जह० हाणी चरिमसमयमिच्छसि से काले संजमासंजमं पडिवजिहिदि ति तस्स जह० हाणी । एवमपच्चक्खाण०४ । णवरि सम्माइट्ठिस्स भाणिदव्वं । सम्म० - सम्मामि० ओघं । अट्ठक० - णवणोक० जह० वड्डी कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स अणंतभागेण वडिदूण बड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावद्वाणं । एवं पंचिदियतिरिक्खतिये । णवरि वेदा जाणिव्वा । जोणिणीसु सम्म० अकसायभंग | ४४०. पंचिदियतिरि० अपज - मणुसअपज० सव्यपय० जह० वड्डी कस्स १ अण्णद० अनंतभागेण वडिदूण वड्डी, हाइगुण हाणी, एगदरत्थावद्वाणं । $ ४४१. देवेसु मिच्छ० - सम्म ० - सम्मामि ० - सोलसक० छण्णोक० णारयभंगो । इत्थवेद - पुरिसवेद ० छण्णोकसायभंगो । एवं सोहम्मीसाण० । एवं सणक्कुमारादि णवगेवजा त्ति । णवरि इत्थवेदो णत्थि । भवण० - वाणवें० - जोदिसि० देवोघं । वरि सम्म० बारसकसायभंगो । अणुदिसादि सव्वट्ठा ति सम्म० - बारसक० - सत्तणोक० आदभंगो। एवं जाव० । $ ४३९. तिर्यों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य हानि किसके होती है ? जो तदनन्तर समयमें संयमासंयमको प्राप्त करेगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती मिध्यादृष्टिके उनकी जघन्य हानि होती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरणचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टिके कहलाना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धि करके वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर संयतासंयतके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। जो अनन्तभागहानि करके हानि करता है ऐसे अन्यतर संयतासंयतके उनकी जधन्य हानि होती है तथा इनमेंसे किसी एक जगह उनका जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार पचेन्द्रिय तिर्यवत्रिक में जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जानना चाहिए। तथा योनिनियोंमें सम्यक्त्वका भंग आठ कषायोंके समान है । $ ४४०. पचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य वद्धि किसके होती है ? अनन्तभागवृद्धिसे युक्त अन्यतर जीवके उनकी जघन्य वृद्धि होती है । अनन्तभागहानिसे युक्त अन्यतर जीवके उनकी जघन्य हानि होती है और इनमेंसे किसी एक जगह उनका जघन्य अवस्थान होता है । $ ४४१. देवोंमें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायका भंग नारकियोंके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है । इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। इसी प्रकार सनत्कुमार कल्पसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें भंग सामान्य देवोंके समान है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । २१
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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