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________________ १६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो अण्णद० अधापबत्तसंजदस्स अर्णतमागेण वडिगावद्विस्स तस्स जह० अवद्वा० । एवं तिण्णं वेदाणं । ४३७. छण्णोक० जह० वड्डी कस्स ? अण्ण उवसमसेढीदो परिवदमाणगस्स विदियसमयउदीरगस्स तस्स जह० वड्डी । जह. हाणी कस्स ? अण्ण. खवगस्स चरिमसमयअपुवकरणस्स तस्स जह० हाणी । जह• अबडा० कस्स ? अण्ण. अधापवत्तसंजदस्स अणंतभागेण वढियणावडिदस्से तस्स जह. अवट्ठा० । एवं मणुसतिये । णवरि वेदा जाणियव्या। $ ४३८. आदेसेण गेरहय० मिच्छ०-अणंताणु०४ ओघ । णवरि जह० हाणी चरिमसमयमिच्छाइद्विस्स से काले सम्मत्तं पडिवजिहिदि ति मिच्छ, समयाहियावलियचरिमसमयमिच्छाइद्विस्स । सम्म०-सम्मामि० ओघ । पारसक०-सत्तणोक० जह० वड्डी कस्स ? अण्ण० सम्माइडिस्स अणंतभागेण वहिण वड्डी, हाइदूण हाणी, एगदरत्थावट्ठाणं । एवं सव्वणिरयेसु । णवरि विदियादि सत्तमा ति सम्म० बारसकसायभंगो। अधःप्रवृत्त संयतके उसका जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार तीन वेदोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। ४३७. छह नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? उपशमश्रेणिसे गिरकर अपनी उदीरणाके दूसरे समयमें विद्यमान अन्यतर उदीरकके उनकी जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? अपूर्वकरणके अन्तिम समयमें स्थित अन्यतर क्षपकके उनकी जघन्य हानि होती है । जघन्य अवस्थान किसके होता है ? अनन्तभागवृद्धि करके अवस्थित हुए अन्यतर अधःप्रवृत्त संयतके उनका जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अपना-अपना वेद जान लेना चाहिए। $ ४३८. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओषके समान है । इतनी विशेषता है कि जो तदनन्तर समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करेगा ऐसे अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके अनन्तानुबन्धोचतुष्ककी जघन्य हानि होती है तथा मिथ्यात्वके एक समय अधिक एक आवलि कालके शेष रहने पर जो,उदीरणाके अन्तिम समयमें स्थित मिथ्या. दृष्टि है उसके मिथ्यात्वकी जघन्य हानि होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओषके समान है। बारह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो अनन्तभागवृद्धि करके वृद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर सम्यग्दृष्टिके उनकी जघन्य वृद्धि होती है, जो अनन्तभागहानि करके हानिको प्राप्त हुआ है ऐसे अन्यतर सम्यग्दृष्टिके उनकी जघन्य हानि होती है और इनमेंसे किसी एक जगह उनका जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में सम्यक्त्वका भंग बारह कषायोंके समान है। . १. ता प्रतौ वढ्यूिण वडिढ्दस्स इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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