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________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ १ अणुक्क० जह० एयस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि इस्स - दि० अणुक० जह० एयस ०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । णपुंस० अणुक० जह० एयस०, उक्क० आवलि० असं ० भागो । एवं सत्तमाए । णवरि सम्मत्त इस्स -रदिभंगो । एवं पढमादि ० छट्टिति । वरि सगट्ठदी देणा । इस्स- रदि० अरदिभंगो । पढमाए सम्म० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० सागरो० देसूणं । समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है। कि हास्य और रतिके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है। नपुंसकवेदके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सातवीं पृथिवीं में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग हास्य और रतिके समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर छटी पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए। इनमें हास्य और रतिका भंग अरतिके समान है । पहली पृथिवीमें सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका अन्तरकाल नहीं है । अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एक सागरोपम है । विशेषार्थ -- नारकियों में मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका स्वामित्व प्रथम सम्क्त्वके अभिमुख हुए मिध्यादृष्टि जीवके यथास्थान होता है, यतः सामान्य नारकियोंमें उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम है, इसलिए यहाँ उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल पल्मोपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। उक्त प्रकृतियोंके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम एक जीवविषयक प्रकृति उदीरणाके अन्तरकालके समान बन जानेसे उसे तत्प्रमाण कहा है। सम्यमिथ्यात्वकी दूसरी बार प्राप्ति नारकियोंमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्तके अन्तरसे और अधिकसे अधिक कुछ कम तेतीस सागरोपमके अन्तरसे प्राप्त होना सम्भव है, इसलिए यहाँ इसके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागरोपम कहा है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा क्षपणाके समय यथास्थान होती है, इसलिए इसके उत्कृष्ट प्रदेश उदीरकके अन्तरकालका निषेध किया है। इसके अनुत्कृष्ट प्रदेश उदीरकका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल सम्यग्मिथ्यात्वके समान है यह स्पष्ट ही है । नारकियों में अप्रत्याख्यानावरण आदि बारह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा सर्वविशुद्ध या तत्प्रायोग्य विशुद्ध सम्यग्दृष्टिके होती है, यतः ऐसी योग्यता कमसे कम १. आ०प्रतौ णपरि हस्स - रदि अणुक्क० जह० एयस० उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि अणुक्क० जह० एयस० उक्क० अतो णर्वारि हस्सरदि अणुक० जह० एस० उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देणाणि घुस ० इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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