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________________ ३२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो७ त्ति तेसिं णामणिदेसो कओ। कथं तेसिमप्पाबहुअं कायव्वमिदि पुच्छिदे 'उक्कस्समुक्कस्सेण जहण्णं जहण्णेणे' त्ति भणिदं । पयडि-द्विदि-अणुभाग-पदेसविसयजहण्णुकस्सबंध-संकमसंतकम्मोदयोदीरणाणं सत्थाणप्पाबहुअमेत्थ कायव्वमिदि वुत्तं भवदि । तदो एदेसिं च जहाकम परूवणं कुणमाणो सुत्तयारो पयडीहिं ताव उक्स्सप्पाबहुअपरूवणट्ठमाह___ * पयडीहिं उक्कस्सेण जाओ पयडीओ उदीरिज्जंति ओदिण्णाओ च ताओ थोवाओ। ६३४८. एत्थ 'पयडीहिं' ति णिद्देसो डिदि-अणुभाग-पदेसवुदासफलो । 'उक्कस्सेणे' त्ति णिद्दसो जहण्णपदपडिसेहट्ठो। 'जाओ पयडीओ उदीरिजंति ओदिण्णाओ च ताओ थोवाओ' ति वयणमुदयोदीरणपयडीणं समाणभावपदुप्पायणदुवारेण उवरि भणिस्समाणासेसपदेहितो थोवभावविहाणफलं । कुदो एदासिं थोवभावणिण्णयो चेव ? दससंखावच्छिण्णपमाणत्तादो। * जाओ बझंति ताओ संखेजगुणाओ। $३४९. कुदो ? वावीससंखावच्छिण्णपमाणत्तादो।' होनेपर बन्ध, सत्कर्म, उदय, उदीरणा और संक्रम इस प्रकार उनका नामनिर्देश किया है । उनका अल्पबहुत्व किस प्रकार करना चाहिए ऐसी पृच्छा होनेपर उत्कृष्टका उत्कृष्टके साथ और जघन्यका जघन्यके साथ यह कहा है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशविषयक जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण युक्त बन्ध, संक्रम, सत्कर्म, उदय और उदीरणाका स्वस्थान अल्पबहुत्व यहाँ पर करना चाहिए यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसलिए इनका क्रमसे कथन करते हुए सूत्रकार प्रकृतियोंकी अपेक्षा सर्व प्रथम उत्कृष्ट अल्पबहुत्वका कथन करनेके लिए सूत्र कहते हैं * प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो प्रकृतियाँ उदीरित होती हैं या उदयमें आती हैं वे स्तोक हैं। $३४८. इस सूत्रमें 'पयडीहिं' पदका निर्देश स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंके निराकरण करनेके लिए किया है। 'उक्कस्सेण' पदका निर्देश जघन्य पदके निराकरण करनेके लिए किया है । 'जाओ पयडीओ उदीरिऑति ओदिण्णाओ च ताओ थोवाओं' पदका निर्देश उदय और उदीरणारूप प्रकृतियोंकी समानताके कथनके द्वारा आगे कहे जानेवाले समस्त पदोंसे स्तोकपनेका विधान करनेके लिए किया है। शंका-इनके स्तोकपनेका निर्णय है ही यह कैसे ? समाधान-क्योंकि इनका दस संख्यारूप परिमितप्रमाण है। * जो प्रकृतियाँ बँधती हैं वे उनसे संख्यातगुणी हैं। $ ३४९. क्योंकि उनका बाईस संख्यारूप परिमित प्रमाण है। १. मूलप्रतौ मध्ये 'संखाव' इति पाठः त्रुटितः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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