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________________ ३५७ गा० ६२ ] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ९ ४८६. कुदो ? मिच्छत्ता हिमुह असंजदसम्माट्टिणा उकस्ससंकिलेसेणुदीरिजमाणासंखेज्जलोगपडिभागियदव्वस्स गहणादो । * उदयो असंखेज्जगुणो । $ ४८७. किं कारणं ? उवसमसम्मत्तपच्छायदवेदयसम्माइट्ठिस्स पढमावलियचरिमसमये उदीरणोदयदव्वं घेत्तूण जहण्णसामित्तावलंबणादो । एसो वि असंखेज्जलोगपडिभागिओ चेत्र । किंतु पुव्विल्लसंकिलेसा दो संपहियसंकिलेसो अनंतगुणहीणो, तेणुदयो असंखेञ्जगुणो ति सिद्धं । को गुणगारो ? तप्पा ओग्गासंखेजवाणि । * संकमो असंखेजगुणो । $ ४८८. किं कारणं ? खविदकम्संसियलक्खणेणागंतू णुव्वेल्लेमाणस्स दुचरिमखंडयचरिमफालीए उव्वेल्लणभागहारेण जहण्णसामित्तावलंबणादो। एत्थ असंखेजलोगमेत्तो गुणगारो । * संतकम्ममसंखे जगुणं । $ ४८९. किं कारणं ? सम्मत्तमुव्वेल्लेमाणखविदकम्मंसियस्स एयट्ठिदिदुसमयकालसेसे जहण्णसामित्तपडिलंभादो । एदं च सम्मत्तचरिमुव्वेलण खंडयचरिमफालीजहण्णदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदेयखंडमेत्तं । जहण्णसंकमदव्वं पुण तं चैव $ ४८६. क्योंकि मिथ्यात्वके अभिमुख हुए असंयतसम्यग्दृष्टिके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशवश उदीर्यमाण असंख्यात लोक प्रतिभागीय द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है । * उससे उदय असंख्यातगुणा है । $ ४८७. क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके अनन्तर जो वेदकसम्यग्दृष्टि हुआ है उसके प्रथम आवलिके अन्तिम समय में उदीरणोदयरूप द्रव्यको ग्रहण कर प्रकृतमें जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यह भी असंख्यात लोकका भाग देनेपर एक भागप्रमाण ही है । किन्तु पूर्वके संक्लेश से साम्प्रतिक संक्लेश अनन्तगुणा हीन है, इसलिए उदय असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । गुणकार क्या है ? तत्प्रायोग्य असंख्यातरूप गुणकार है । * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ४८८. क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर उद्बलना करनेवाले जीवके उद्बोलना भागहारद्वारा द्विचरमकाण्डककी अन्तिम फालिके प्राप्त होनेपर जघन्य स्वामित्वका अवलम्बन लिया है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है । * उससे सत्कर्म असंख्यातगुणा है । $ ४८९. क्योंकि सम्यक्त्वकी उद्वेलना करनेवाले क्षपितकर्माशिकके दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके शेष रहनेपर जघन्य स्वामित्वकी उपलब्धि होती है । और यह द्रव्य सम्यक्त्वके अन्तिम उद्वेण्डलनकाण्डककी अन्तिम फालिस्वरूप जघन्य द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर एक खण्डप्रमाण है । परन्तु जघन्य संक्रम द्रव्य उसी जघन्य सत्कर्मको
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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