SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेद्गो ७ जहण्णसंतकम्ममंगुलस्सासंखे ० भागमेत्तुब्वेल्लणभागहारेण खंडिदेयखंडपमाणं होइ । तेण संकमादो संतकम्ममसंखेजगुणमिदि सिद्धं । एत्थ गुणगारो अंगुलस्सासंखे ० भागो । ३५८ * एवं सम्मामिच्छत्तस्स । $ ४९०. सुगममेदमप्पणासुतं । * अणंताणुबंधीणं जहणिया पद सुदीरणा थोवा । $ ४९१. कुदो १ सव्त्रसंकिलिट्ठमिच्छाइट्टिणा असंखेजलोगपडिभागेणुदीरिजमाणदव्वस्स गहणादो । * संकमो असंखेज्जगुणो । $ ४९२. कुदो ? खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण तसकाइएसुप्पञ्जिय सव्वलहुमताणुबंधीणं विसंजोयणापुव्वसंजोगेणं तोमुडुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तपडिवत्तिपुरस्सरं वेवसागरोवमकालम्मि असंखेजगुणहाणीओ गालिय पुणो गलिदसेससंतकम्मं विसं - जो माणअधापवत्तकरणचरिमसमयम्मि अंगुलस्सासंखे० भागमेत्तविज्झादभागहारेण संकामिददव्यस्स पुव्विल्लासंखेजलोग पडिभागिय दव्वादो असंखेज्जगुणत्तं पडि विरोहाभावाद । एत्थ गुणगारो असंखेजा लोगा । अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण उद्वेलन भागहारसे खण्डित करनेपर एक खण्डप्रमाण है, इस कारण संक्रम द्रव्यसे सत्कर्मका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह सिद्ध हुआ । यहाँ पर गुणकार अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । * इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए । $ ४९०. यह अर्पणा सूत्र सुगम है । * अनन्तानुबन्धियोंकी जघन्य प्रदेश उदीरणा स्तोक है । –S ४९१ · क्योंकि सर्वसंलेशयुक्त मिथ्यादृष्टिके द्वारा असंख्यात लोकप्रमाण भागहारके आश्रयसे उदीर्यमाण द्रव्यको प्रकृतमें ग्रहण किया है। * उससे संक्रम असंख्यातगुणा है । $ ४९२. क्योंकि क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर तथा त्रसकायिकों में उत्पन्न होकर अतिशीघ्र अनन्तानुबन्धियोंकी विसंयोजनपूर्वक उनके संयोगके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर वेदकसम्यक्त्वकी प्राप्तिपूर्वक दो छयासठ सागरोपम प्रमाण कालके भीतर असंख्यात गुणहानियोंको गलाकर पुनः गलित होनेसे शेष बचे हुए सत्कर्मकी विसंयोजना करते हुए अधप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण विध्यात भागहारके द्वारा संक्रमित हुआ द्रव्य असंख्यात लोकप्रमाण भागहारके आश्रय से प्राप्त हुए पूर्वद्रव्यसे असंख्यातगुणा है इसे स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है । यहाँ पर गुणकार असंख्यात लोकप्रमाण है ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy