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________________ गा० ६२] बंधादिपंचपदप्पाबहुअं ३५९ * उदयो असंखेजगुणो। $ ४९३. तं कथं ? दिवड्डगुणहाणिगुणिदमेगमेइंदियसमयपबद्धं ठ विय तम्मि ओकड्डुक्कड्डणभागहारमधापयत्तभागहारं बेछावट्ठिअण्णोण्णब्भत्थरासिं च अण्णोण्णगुणं करिय भागे हिदे बेच्छावट्ठीसु गलिदसेसमणंताणु० जहण्णदव्वं होइ । पुणो एदम्मि दिवड्डगुणहाणीहि ओवडिदे उदयजहण्णदव्वमागच्छइ । जेणेसो दिवड्डगुणहाणिमेत्तभागहाररासी पलिदो० असंखे०भागपमाणो होदण विज्झादभागहारादो असंखे०गुणहीणो तेण पुयिन्लसंकमदव्वादो एदस्सासंखेजगुणत्तमविप्पडिवत्तिसिद्धं । एत्थ गुणगारो विज्झादमागहारस्सासंखे०भागो। *बंधो असंखेजगुणो। ६४९४. किं कारणं ? उदयजहण्णदव्वं णाम सामित्तसमयजहण्णसंतकम्मस्स पलिदोवमासंखेजभागपडिभागियं होदूण पुणो अणंताणुबंधीणमंतोमुहुत्तसंचिदजहण्णदव्वं पेक्खिय अंगुलस्सासंखे०भागेण खंडिदेयखंडमेत्तं होइ । जहण्णदव्वं पि पेक्खियूण पलिदो० असंखे०भागपडिभागिओ होइ, जोगगुणगारपदुप्पण्णदिवड्डगुणहाणीहि तम्मि ओवट्ठिदे तदागमणदंसणादो । एवं होइ त्ति कादण असंखेजगुणत्तमेदस्स सिद्धं । को * उससे उदय असंख्यातगुणा है। $ ४९३. शंका-वह कैसे ? समाधान-डेढ़गुणहानिसे गुणित एकेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धको स्थापितकर उसमें अपकर्षण उत्कर्षण भागहार, अधःप्रवृत्तभागहार तथा दो छयासठ सागरोपमकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन तीनोंका परस्पर गुणा करके जो लब्ध आवे उसका भाग देनेपर दो छयासठ सागरोपमके भीतर गलकर शेष बचा हुआ अनन्तानुबन्धियोंका जघन्य द्रव्य होता है। पुनः इसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देनेपर उदय स्वरूप जघन्य द्रव्य आता है। अतः यह डेढ़ गुणहानिप्रमाण भागहार राशि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण होकर विध्यात भागहारसे असंख्यातगुणी हीन है, इसलिए पूर्वके संक्रम द्रव्यसे यह द्रव्य असंख्यातगगा है यह विना विवादके सिद्ध है। यहाँ पर गुणकार विध्यातभागहारका असंख्यातवां भागप्रमाण है। * उससे बन्ध असंख्यातगुणा है। ६४९४. क्योंकि उदयसम्बन्धी जघन्य द्रव्य अपने स्वामित्वके समयमें प्राप्त जघन्य सत्कर्ममें पल्योपमके असंख्यातवें भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना है फिर भी अनन्तानुबन्धियोंके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सञ्चित हुए जघन्य द्रव्यको देखते हुए अंगुलके असंख्यातवें भाग देने पर एक भागप्रमाण है। परन्तु जघन्य बन्ध स्वस्थान क्षपितकमांशिकके जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा भी पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाजित करनेपर एक भागप्रमाण है, क्योंकि योगगुणकारसे प्रत्युत्पन्न डेढ़ गुणहानियोंके द्वारा उसके अपवर्तित करनेपर उसका आगमन देखा जाता है । इस प्रकार होता है ऐसा समझकर असंख्यातगुणा १. आ प्रतौ ओकड्डुक्कड्डुणभागहारेहि इति पाठः ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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