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________________ ४३ गा० ६२ ] उत्तरपयडिअणुभागउदीरणाए सण्णा अणुक्क० विट्ठाणि० | पंचिंदियतिरिक्ख अपज० - मणुसअपञ्ज० मिच्छ० - सोलसक०सत्तणोक० 'णारयभंगो । देवा० तिरिक्खोघं । णवरि णवंस० णत्थि । एवं सोहम्मीसाण० । एवं भवण ० - वाणवें० - जोदिसि० । णवरि सम्म० उक्क० अणुक्क० विट्ठाणि० । सक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति देवोघं । णवरि इत्थिवेदो णत्थि । आणदादि जाव सव्वट्टा चि अप्पप्पणो पयडीणं उक्क० अणुक्क० विट्ठाणि० । णवरि सम्म० ओघं । एवं जाव० । $ ९६. जह० पदं । दुविहो णिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०बारसक० - छण्णोक० जह० विट्ठाणि० । अजह० विट्ठाणि० तिट्ठाणि० चउट्ठाणि० । सम्म० जह० एगट्ठाणि० । अज० एगट्ठाणि ० विट्ठाणिया वा । सम्मामि० जह० अजह० विट्ठाणि० । चदुसंजल० - तिण्णिवेद० जह० एगट्ठाणि० । अजह० एगट्ठाणि० विट्ठाणि० तिट्ठा ० चउट्ठाणिया वा । एवं मणुसतिए । णवरि पजचएसु इत्थिवेदो णत्थि । मणुसिणीसुपुरिसवे ० - नपुंस० णत्थि । $ ९७. आदेसेण णेरइय० मिच्छ० - सोलसक० - सत्तणोक० जह० विट्ठाणिया । योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग दीरणा द्विस्थानीय है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंका भंग नारकियोंके समान है। सामान्य देवोंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसकवेद नहीं है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पमें जानना चाहिए। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इनमें स्त्रीवेद नहीं है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अपनी-अपनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । $ ९६. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है । सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय भी है और द्विस्थानीय भी है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है। चार संज्वलन और तीन वेदोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा एकस्थानीय भी है, द्विस्थानीय भी है, त्रिस्थानीय भी है और चतुःस्थानीय भी है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकों में स्त्रीवेद नहीं है तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंकसवेद नहीं है । ९७. आदेश से नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी जघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय है । अजघन्य अनुभाग उदीरणा द्विस्थानीय भी है, स्थानीय
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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