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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वैदगो ७ सामित्तावलंबणे असंखेजगुणत्तन्भुवगमादो । किंतु उवसमसम्मत्ताहिमुहं मोत्तूण वेदयसम्मत्ताहि मुहमिच्छा इड्डिचरिमसमए मिच्छत्ताणताणु वंधीण मक्कमेण सामित्तं होदि ति एदेणाहिप्पारण संखेजगुणत्तमेदं सुत्तयारेण पदुप्पाइदं तदो ण दोसो त्ति | उच्चारणाहिप्पाएण पुण णियमा असंखेज्जगुणेण होदव्वं, तत्थ सामित्त मेददंसणादो तदनुसारेणेव तत्थ सण्णियासविहाणादो च । तदो उच्चारणासामित्तं मोचून सुत्तसामित्तमण्णारिस घेत्तूण पयदप्पा बहु असमत्थणमेदं कायव्यमिदि ण किं चि विरुद्धं २९४ * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सिया पदेस दीरणा असंखेज्जगुणा । $ २७८. कुदो ? सम्मत्ताहि मुहचरिमसमयमिच्छाइ सिन्धुक्कस्सवि सोही दो अनंतगुणसम्मत्ताहि मुहसम्मामिच्छाइट्ठिचरिमविसोहीए पडिलद्ध कस्सभावत्तादो । * अपच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा अण्णदरा असंखेज्जगुणा । $ २७९. कुदो ? सम्मामिच्छा इट्ठिविसोहीदो अनंतगुण सत्थान सम्माइट्टिसव्बुक्कस्सविसोहीए अपच्चक्खाण कसायाणमुक्कस्ससामित्तावलंबणादो | * पच्चक्खाणकसायाणमुक्कस्सिया पदेस दीरणा अण्णदरा विसेसाहिया । समाधान- यहाँ उक्त शंकाका समाधान करते हैं - यह सत्य है, क्योंकि उस प्रकारके स्वामित्व अवलम्बन करनेपर असंख्यातगुणत्व स्वीकार किया है। किन्तु उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवको छोड़कर वेदकसम्यक्त्वके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धियोंका युगपत् स्वामित्व होता है इस प्रकार इस अभिप्राय से सूत्रकारने यह स्वामित्व संख्यातगुणा कहा है, इसलिए कोई दोष नहीं है । उच्चारणाके अभिप्राय तो नियमसे असंख्यातगुणा होना चाहिए, क्योंकि वहाँ स्वामित्वभेद देखा जाता है और उसके अनुसार हीं वहाँ सन्निकर्षका विधान किया है। इसलिए उच्चारणाके अनुसार स्वामित्वको छोड़कर अन्य आर्षमें प्रतिपादित सूत्रके अनुसार स्वामित्वको ग्रहण कर इस प्रकृत अल्पबहुत्वका समर्थन करना चाहिए, इसलिए कुछ भी विरुद्ध नहीं है । * उससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७८. क्योंकि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिकी सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिसे सम्यक्त्वके अभिमुख हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिकी अनन्तगुणी अन्तिम विशुद्धिद्वारा यह उत्कृष्टपना प्राप्त होता है । * उससे अप्रत्याख्यानकषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा असंख्यातगुणी है । $ २७९ क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टिकी विशुद्धिसे स्वस्थान सम्यग्दृष्टिकी अनन्तगुणी सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिद्वारा अप्रत्याख्यान कषायोंके उत्कृष्ट स्वामित्वका अवलम्बन लिया है। * उससे प्रत्याख्यानकषायोंमेंसे अन्यतर प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेश उदीरणा विशेष अधिक है ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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