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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदोगो ७ $ २४१. सणक्कुमारादि जाव सहस्सारा त्ति सम्म० जह० खेत्तं । अजह० लोग असंखे० भागो अड्ड चोदस० देसूणा । सेसपय० जह० असंखे ० भागो अट्ठ० चोदस० देसूणा । ० अजह० लोग ० ९८. $ २४२. आणदादि जाव अच्चुदा ति सम्म० जह० खेत्तं । असंखे० भागो छ चोदस० देसूणा । सेसपय० जह० अजह० लोग० चोदस० देखणा । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाव० । अजह० लोग० असं०भागो छ ० $ २४३. काला० दुविहो - जह० उक्क० । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ० - सम्म० - सोलसक० - णवणोक० उक्क० अणुभागुदी ● जह० एयस०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । सम्मामि० उक्क० जह० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक० जह० अंतोमु०, उक्क० दो० अ० भागो । $ २४१. सनत्कुमार कल्पसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में सम्यक्त्वके जघन्य अनु.भागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । $ २४२. आनत कल्पसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग के उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्ष ेत्रका स्पर्शन किया है । शेष प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्ष ेत्रका स्पर्शन किया है । ऊपर के देवोंमें क्ष ेत्र के समान भंग है । इसीप्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिए । $ २४३. कालानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका काल सर्वदा है । सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग के उदीरकोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । विशेषार्थ – यहाँ सभी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकोंका उत्कृष्ट काल जो आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो उसका आशय ही इतना है कि यदि नाना जीव निरन्तर उक्त सभी प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागकी उदीरणा करते रहें तो उस सब कालका योग आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, इससे अधिक नहीं। तथा सम्यग्मिथ्यात्वके
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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