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________________ ७४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो७ तेत्तीसं सागरो । एवं भवणादि णवगेवजा त्ति । णवरि सगद्विदीओ । हस्स-रदि० अरदि-सोगभंगो । सहस्सारे हस्स-रदि० देवोघं । भवण-वाणवें०-जोदिसि० सम्म जह० जह० एयस०, उक्क० वे समया। अजह० जह० एयसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । इत्थिवे. अजह० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पलिदो० सादिरेयाणि प० सा० । सोहम्मीसाण० इत्थिवेद० देवोघं । उवरि इत्थिवेदो पत्थि । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति सम्म०-बारसक०-सत्तणोक० आणदभंगो । णवरि सगहिदी० । एवं जाव०। * अंतरं। 5 १८६. एगजीवविसयमंतरमेत्तो भणिस्सामो त्ति अहियारपरामरसवक्कमेदं । * मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? १८७. सुगममेदं पुच्छावक्कं । * जहणणेण एगसमओ। $ १८८. कुदो ? उक्कस्सादो अणुक्कस्सभावं गंतूणेगसमयमंतरिय पुणो वि विदियसमए उक्कस्सभावमुवगयम्मि तदुवलंभादो । अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पचवन पल्योपम और तेतीस सागरोपम है । इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । हास्य और रतिका भंग अरति और शोकके समान जानना चाहिए। मात्र सहस्रारकल्पमें हास्य और रतिकाभंग सामान्य देवोंके समान जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उप्कृष्ट काल दो समय है । अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। स्त्रीवेदके अजघन्य अनुभागके उदीरकका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे तीन पल्योपम, साधिक एक पल्योपम और साधिक एक पल्योपम है। सौधर्म और ऐशान कल्पमें स्त्रीवेदका भंग सामान्य देवोंके समान है। आगेके देवोंमें स्त्रीवेद नहीं है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भंग आनत कल्पके समान है । इतनी विशेषता है कि अपनी-अपनी स्थिति कहनी चाहिए । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । * अन्तरकालका अधिकार है। $ १८६. यहाँसे एक जीवविषयक अन्तरकालको कहेंगे। इस प्रकार अधिकारका परामर्श करनेवाला यह सूत्रवचन है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना अन्तरकाल है ? ६ १८७ यह पृच्छावाक्य सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है। $ १८८. क्योंकि उत्कृष्टसे अनुत्कृष्टपनेको प्राप्त होकर तथा एक समयके लिए अन्तर करके फिर भी दूसरे समयमें उत्कृष्टभावके प्राप्त होने पर एक समयप्रमाण उक्त अन्तरकाल प्राप्त होता है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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