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________________ ३६ " जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [वेदगो गुणवढि-हाणि...': संखे-गुणा । असंखेगुणवड्ढि-हाणि० असंखे गुणा । अणंतगुणहाणि० असंखे०गुणा । अणंतगुणवड्ढि० विसेसा० । एवं सव्वणिरयसव्वतिरि०--मणुसअपज०-देवा जाव अवराजिदा ति । णवरि अवत्त० पत्थि । मणुसेसु सव्वस्थोवा अवत्त । अवढि० असंखे गुणा। सेसमोघं । एवं मणुसपज्जमणुसिणी०।। णवरि संखेज्जगणं कादव्वं । एवं सबढे । णवरि अवत्त० णत्थि । एवं जावा स७८. एत्थाणुभागुदीरणट्ठाणाणं बंधसमुप्पत्तियादिमेदेण तिहा विहत्ताणं परूवणाए अणुभागसंकमभंगो । णवरि सव्वत्थ अणुभागसंतकम्मट्ठाणस्स अणंतिमभागमेत चेव उदीरणट्ठाणं होइ । कारणं सुगमं । एवं मूलपयडिअणुभागुदीरणा समत्ता। - * उत्तरपयडिअणुभागुदीरणं वत्तइस्सामो। । ७९. मुलपयंडिअणुभागुदीरणविहासणाणंतरमेत्तो जहावसरपत्तमुत्तरपयडिअणुभागुदीरणं वत्तइस्सामो त्ति पइण्णावकमेदं । 1 * तत्थेमाणि चउवीसमणियोगद्दाराणि-सराणा सव्वउदीरणा एवं जाव अप्पाबहुए त्ति भुजगार-पदणिक्वेव-वढि-ठाणाणि च । संख्यातगुणे हैं। उनसे असंख्यात गुणवृद्धि और असंख्यात गुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्त गुणहानि अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अनन्तगुणवृद्धि अनुभागके उदीरक जीव विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यऊच, मनुष्य अपर्याप्त और सामान्य देवोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। सामान्य 'मनुष्योंमें अवक्तव्य अनुभागके उदीरक जीव सबसे स्तोक हैं। उनसे अवस्थित अनुभागके उदीरक जीव असंख्यातगुणे हैं । शेष भंग ओघके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि संख्यातगुणा करना चाहिए। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अवक्तव्य पद नहीं है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए । ६ ७८. यहाँ पर बन्धसमुत्पत्ति आदिके भेदसे तीन प्रकारके अनुभाग उदीरणास्थानोंकी प्ररूपणाका भंग अनुभागसंक्रमके समान है। इतनी विशेषता है कि सर्वत्र अनुभाग सत्कर्मस्थानके अनन्तवें भागप्रमाण ही उदीरणास्थान होता है । कारण सुगम है। इस प्रकार मूलप्रकृति-अनुभाग-उदीरणा समाप्त हुई। * अब उत्तरप्रकृतिअनुभागउदरिणाको बतलाते हैं। 5 ७९. मूल प्रकृति अनुभाग उदीरणाका विशेष व्याख्यान करनेके बाद यथावसर प्राप्त उत्तर प्रकृति अनुभाग उदीरणाको बतलाते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञा वाक्य है। * उसके विषय में ये चौबीस अनुयोगद्वार हैं-संज्ञा और सर्व उदीरणासे लेकर अल्पबहुत्ब तक तथा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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