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________________ __जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ इद्विपढमसमए मिच्छत्ताणुकस्साणुभागुदीरगो जादो, लद्धमंतरं। संपहि सेसाणं पि कम्माणमेसा वेव परूपणा थोवयरविसेसाणुविद्धा कायव्या ति पदुप्पायणट्ठमप्पणासुत्तमाह * एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवजाणं । $ १९३. एत्थ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं किमटुं परिवजणं कीरदे ? ण, तेसिमुक्कस्साणुक्कस्सागुभागुदीरगंतरस्स मिच्छंतरपरूवणादो अइविलक्खणत्तेण साहम्मियाभावादो। तदो ताणि मोत्तण सेसाणं कम्माणं मिच्छत्तस्सेव पयदंतरपरूवणा कायव्वा, भेदाभावादो। णवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगस्स उक्कस्संतरगओ विसेसो अस्थि त्ति तप्पदुप्पायणट्टमाह * पवरि अणुक्कस्साणुभागुदीरगंतरं पयडिअंतरं कादव्वं ? १९४. एदेसिमणुक्कस्साणुभागुदीरगस्स उक्कस्सं जहा पयडिउदीरणाए उक्कस्संतरं परूविदं तहा परूवेयव्वमविसेसादो त्ति भणिदं होदि । * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुकस्साणुभागुदीरगंतरं केवचिरं कालादो होदि ? उसके अन्तमें अन्तमुहूर्तमात्र शेष रहने पर मिथ्यात्वमें जाकर मिथ्यादृष्टि गुणास्थानके प्रथम समयमें मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका उदोरक हो गया। इसप्रकार उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हुआ। अव शेप कर्मोकी भी स्तोक विशेषतासे युक्त यही प्ररूपणा करनी चाहिए इस बातका कथन करनेके लिए अर्पणा सूत्रको कहते हैं * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर इसी प्रकार शेष कर्मोंकी अपेक्षा जानना चाहिए । $ १९३. शंका–यहाँ पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका निषेध किसलिए किया जाता है ? समाधान नहीं, क्योंकि उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके अन्तरकालकी मिथ्यात्वकी अन्तरप्ररूपणाके साथ अत्यन्त विलक्षणता होनेसे साम्य नहीं पाया जाता, इसलिए उन्हें छोड़कर शेप कर्मों के प्रकृत अन्तरकालकी ग्ररूपणा मिथ्यात्वके समान करनी चाहिए, क्योंकि इनकी प्ररूपणामें कोई भेद नहीं है । इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकके उत्कृष्ट अन्तरकालगत विशेप है, इसलिए उसका कथन करनेके लिए कहते हैं___* इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका अन्तरकाल प्रकृति उदीरणाके अन्तरकालके समान करना चाहिए। $ १९४. जिस प्रकार प्रकृति उदीरणाका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है उसी प्रकार इनके अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका उत्कृष्ट अन्तरकाल कहना चाहिए, क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके उदीरकका कितना अन्तरकाल है ?
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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