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________________ २७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सत्तमाए मिच्छ० अवत्त० खेत्त० । पढमाए खेत्तमंगो। ६४६६. तिरिक्खेसु मिच्छ० सव्बपद० सव्वलोगो । णवरि अवत्त० सत्त चोदस० । सम्म० सव्वपद० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० । णवरि अवत्त० खेत्तं । सम्ममि० खेत्तं । सोलसक०-सत्तणोक० ओघं । इथिवेद-पुरिसवेद. सव्वपद० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । ४६७. पंचिं०तिरि०तिये सम्म०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । सेसपय० सव्वपद० लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि मिच्छ० अवत्त० सत्त चोदस० । तिण्णिवेद० अवत्त० खेत्तं । णवरि पज्ज० इत्थिवेदो पत्थि । जोणिणीसु पुरिस०णस० पत्थि । इत्थिवेद० अवत्तव्वं च णत्थि । ___ ४६८. पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज० सव्वपयडीणं सव्वपद० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । मणुसतिये पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि सम्म० खेत्तं । मणुसिणीसु इत्थिवेद० अवत्त० खेत्तं ।। इतनी विशेषता है कि अपना-अपना स्पर्शन कहना चाहिए । इतनी विशेषता और है कि सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। पहली पृथिवीमें भंग क्षेत्रके समान है। ४६६. तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वके सब पद-अनुभागके उदीरकोंने सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वके सब पदअनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि इसके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग क्षेत्रके समान है। सोलह कषाय और सात नोकपायोंका भंग ओघके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सब पद-अनुभागके_ उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। ४६७. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। शेष प्रकृतियोंके सव पद-अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम सात भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तीन वेदोंके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इतनी विशेपता है कि पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद नहीं है तथा योनिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेद नहीं है। तथा योनिनियों में स्त्रीवेदकी अवक्तव्य अनुभाग उदीरणा भी नहीं है। ४६८. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद अनुभागके उदीरकोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । मनुष्यत्रिकमें पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग क्षेत्रके समान है। मनुष्यनियोंमें स्त्रीवेदके अवक्तव्य अनुभागके उदीरकोंका स्पर्श न क्षेत्रके समान है।
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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