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________________ १६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ वेदगो ७ सम्मामि०-अपञ्चक्खाण०४-इत्थिवे.-पुरिसवे. ओघं। अट्ठक०-छण्णोक० ओघसंजलणभंगो। णवुस० ओघं । णवरि अणंतगुणवड्डि-हाणी. जह० एयस०, उक्क० पुव्वकोडि'धत्तं । सवपंचिंदियतिरिक्ख-सव्यमणुस-सव्वदेवा त्ति सव्वपयडी० पंचवड्डि-हाणि-अवढि० भुज अवविदभंगो । अणंतगुणवड्डि-हाणी० भुजगारउदीरणाए भुज०अप० भंगो । अवत्त० भुजगारअवत्त०भंगो । एवं जाव० । ४५७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-णqस० छबड्डि-हाणि-अवट्टि० णिय० अत्थि । अवत्त० भयणिज्जं । सम्म०-इत्थिवे०-पुरिसवेद० अणंतगुणवड्डि-हाणी० णिय० अत्थि । सेसप० भयणिज्जा । सम्मामि० सवपदा भयणिजा। सालसक०-छण्णोक० सव्वपदा णिय० अस्थि । एवं तिरिक्खा। $ ४५८. सव्वणिरय-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देवा जाव गवगेवजा त्ति सम्मामि० ओघं । सेसपय० अणंतगुणवडि-हाणी० णिय अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-अणुदिसादि सव्वट्ठा त्ति सव्यपय० अणंतगुणवड्डिहाणी. णिय०. अत्थि । सेसपदा भयणिजा । मणुसअपज. सव्वपय० सव्वपदा है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्योपम है । अवक्तव्यपदका भंग भुजगारके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका भंग ओघके समान है। आठ कषाय और छह नोकषायोंका भंग ओघ संज्वलनके समान है। नपुंसकवेदका भंग ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इसकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें सब प्रकृतियोंकी पाँच वद्धि, पाँच हानि और अवस्थित पदका भंग भुजगार अनुयोगद्वारके अवस्थित पदके समान है। अनन्तगुणवृद्धि औरअनन्तगुणहानिका भंग भुजगार उदीरणाके भुजगार और अल्पतर पदके समान है। अवक्तव्य पदका भंग भुजगारके अवक्तव्य पदके समान है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए। ६४५७. नाना जीवोंका अवलम्बन लेकर भंगविचयानगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और नपुंसकवेदकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थित पद नियमसे हैं । अवक्तव्य पद भजनीय है। सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके सब पद भजनीय हैं । सोलह कषाय और छह नोकषायोंके सब पद नियमसे हैं। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। ..$ ४५८. सब नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक और सामान्य देवोंसे लेकर नौ प्रैवेयक तकके देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। शेष प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि नियमसे है। शेष पद भजनीय हैं । पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त तथा अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि नियमसे है । शेष पद भजनीय हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सब पद
SR No.090223
Book TitleKasaypahudam Part 11
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages408
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size14 MB
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